2008-05-26

बरिशो मे धूप की बात ?

रोज सुबह इस दिन से कुछ वादे करता हूँ....दोपहर तक आते तक बेवफाई कर देता हूँ...शाम को फ़िर उन वादों को याद करता हूँ ओर रात तक आते आते उनकी पीठ फ़िर थपथपा देता हूँ..दिन ऐसे ही गुजर जाते है...कभी कभी इस भागती दौड़ती जिंदगी मे किसी किताब का कोई पन्ना दिल के कोनो मे पड़े कुछ अहसासों को जगा देता है या कोई ऐसा पुराना गीत जिससे कोई पुराना नाता हो दिल के दरवाजो को ठकठका देता है....पिछले ४ दिनों से बारिश काम ओर दिल दोनों के बीच आ रही है .....ओर बखूबी आ रही है.....इसलिए एक धूप की नज्म जो मैंने बहुत पहले किनी धूप के दिनों मे लिखी थी....इस उम्मीद मे यहाँ भेज रहा हूँ...की शायद कुछ हल मिले........



उफ़्फ़ .......
कितनी तेज़ धूप है आज
आसमां ने कोई खिड़की खोली है शायद
कुछ ख़्याल ओंधे मुह लेटे थे
रोशनी चुभी तो
लफ़्ज़ो को झाड़कर
उठ खड़े हुए,
मसरूफियत से भागे कुछ ख़यालो ने
बमुश्किल उन लफ़्ज़ो को जमा किया था
कई बार टोका है
इन ख़्यालो को
इन लफ्जो को गिरह मे बाँधकर रखा करो
बेवफाई शगल है इनका
देखना
आज की रात फिर ...
कोई शायर ऊँघता मिलेगा

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