2008-06-16

कहाँ छुपा के रखी है रात तुने ?


हर रात अपनी हथेलियों मे कुछ नज्म लिए आती है ...जिंदगी जब कभी आँख बचाकर तस्सवुर की इन तन्हा गलियों मे चक्कर लगाती है वहाँ ऐसी की कई राते मिलती है कुछ खफा खफा सी ....नाम लेकर बुलायो तो सीने से लगकर देर तक शिकायत करती है .....ऐसी ही दो राते








उस
खुश्क रात के होटो पर
बादल रखकर
जब तुम
भीगी -भीगी सी आयी थी,
हर साँस मे
एक समंदर लिये ,
जिसके साहिल दर साहिल
मैं डूबा था
वो रात........
अब भी कही पोशीदा है
रोज़ मेरे सिरहाने
सुबह भीगी-भीगी सी
पड़ी मिलती है
कहाँ छुपा के रखी है रात तूने?










(२)



उन सर्द रातो की
उलझी -उलझी सांसो मे
जब आरजुये
कोहनियो पर सर रखकर
एक करवट सोती है ,
तन्हाई चाँदनी को ओक मे
भर भर कर पीती है
खामोशियाँ सारी आह्टो को
आगोश मे भरे रहती है
एक ख़वाब ........
अक्सर जगा हुआ मिलता है
आओ कुछ ऐसा करे "सोना"
उस लम्हे को फिर से ज़िंदा करे
कि
नींद आ जायेगी इस ...."बेचारे "को




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