2008-07-01

मेरे तजुर्बे बड़े है मेरी उम्र से


इन आइनों से सब अंदाजा नही होता
मेरे तजुर्बे बड़े है मेरी उम्र से













आज सुबह सुबह हॉस्पिटल से कॉल आ गयी तो आँख पौने छः बजे खुल गयी ...हॉस्पिटल की सीडियो से नीचे उतरते वक़्त डॉ आहूजा मिल गये,उम्र में मुझसे बड़े है ओर काफी सीनियर भी है ,वे paediatrician है ओर हमारे काम्प्लेक्स में ही प्रक्टिस करते है ..दो दिन में एक बार एक वक़्त की चाय हम साथ पी ही लेते है .

अभिवादन के बाद मैंने उनसे पूछा "कल वाला बच्चा कैसा है सर ?कुछ diagnosis बना ? तो वे मुस्करा दिये .
कल दोपहर जब हम चाय पीने बैठे ही थे तो उनके पास एक 6 महीने का बच्चा बचैन ओर irritable condition में बुलंदशहर के पास के किसी गाँव से लाया गया था …जो पिछले दो दिन से सोया नही था उन्होंने उसे admit करने की सलाह दी तभी ..इत्तेफकान एक सीसर की कॉल भी आ गयी ….दोनों हॉस्पिटल में 10-15 मिनट का फासला है ,उन्होंने कुछ निर्देश बच्चे के कार्ड पर लिखे ओर ये समझते हुए की एकदम इमर्जेंसी नही है कहा की आप लोग नर्सरी में लेकर पहुँचो ओर ड्रिप लगवायो मै दस मिनट में सीसर attend करके आता हूँ...

उनके मुताबिक जब 15 मिनट बाद पहुंचे तो बच्चा बिल्कुल आराम से गहरी नींद सो रहा था बिना किसी परेशानी के ...सिस्टर के मुताबिक अन्दर आते ही बच्चा ५ मिनट में सो गया केवल normal saline की ड्रिप लगी थी ..उन्होंने बच्चे को 15 मिनट तक ओब्सेर्वे किया फ़िर सिस्टर को ये निर्देश देकर की किसी परेशानी को देखकर उन्हें फोन करे वे वहां से बिना कोई treatment स्टार्ट करे चले आये ..ओर कल से बच्चा फिट था.... …दरअसल वो एक मजदूर का बच्चा था जो किसी ईट के भट्टे के पास कम करता था ,वाही उसने तीन डालकर ईटो से अपना एक ठिया बना रखा था …माँ भी कम करती थी तो बच्चे को अपने पास लगाये रखती थी . …ओर वो नन्हा उगलते सूरज को अपना साथी समझ खेलता .. ..इसलिए …..नर्सरी के ए .सी में आते ही सो गया …मुफलिसी उसकी बीमारी थी ......….आखिरी सीडी पर पहुँचते ही पास से निकलती सिस्टर बोली " good morning डॉ ..हैप्पी डॉ.डे "

गाड़ी की तरफ़ बढ़ता हुआ सोचने लगा ......'डॉ डे …'किस बात का .थोडी देर में sms का दौर शुरू होगा ..फ़िर क्लीनिक में फूलो ओर कार्ड्स का...........पर .कल वो मुफलिसी का सूरज फ़िर उगेगा ....ओर फ़िर आग उगलेगा ........अजीब बात है न की मुर्दा जिस्मो की तमाम चीरफाड़ हमने तालीम हासिल करने के ली पर जिंदा इंसानों को समझने में नाकाम है.........सच से परे की दुनिया कितनी हसीन है उस सच से जिसमे सरकारी हस्पताल में भरती बीमार औरत हस्पताल से मिला खाना अपने भूखे बच्चो को खिला देती है ...उस सच को जहाँ अस्थमा से हांफती छाती भी दो दिन बाद ही मजदूरी करने को खड़ी हो जाती है....कितने नंगे सच रोज सुबह पौ फटे जागते है ,ऐसे सच के सामने अपनी कल्पना शीलता छिछोरी लगती है ,सपने मिथक लगते है ओर ऐसा लगता है जैसे ख़ुद को बुद्धिजीवी साबित करने का ढोंग रच रहा हूँ......कई बार जब लिखने बैठता हूँ तो हकीक़तो को पीछे धकेलता हूँ....खयालो को जबदस्ती रूमानी बनाता हूँ... भीतर का मनुष्य कही सिमट जाता है ओर एक लेखक हावी हो जाता है ........अपनी इमानदारी पर कई बार मुझे ख़ुद ऐतराज होता है......खयालो को सिलेवार लगा तो लेता हूँ.....पर ...जिंदगी के इस पहलू से मुझे इत्तेफाक नही ..है . ..... मै शर्मसार हूँ.....की फ़िर कुछ अटपटा सा लिख रहा हूँ..... मुझे मुआफ किजीयेगा ...
इन नंगे सचो को ढकने का है लिबास कोई ??

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