2008-07-20

कौन समझाये इन नज्मो को कि अब वैसी बारिशे नही होती ..


जब किसी छुट्टी वाले दिन ढेरो बारिश गिरती है ,डायरी के सीले से सफ्हो पे कई पुरानी नज्मे बैचेनी से चहलकदमी करती है ,उचक कर आवाजे देती है ,११ साल पहले मसूरी की लायब्रेरी के सामने ठिठुरती सड़क पे मिली ये नज़्म अक्सर ऐसी बारिशो में "लॉन्ग-ड्राइव "पे चलने की जिद करती है ओर कभी कभी मेरी कार की विंडस्क्रीन पे बूंदों संग सोयी हुई मिलती है...



कुछ लफ्ज़ भेजे थे तुम्हे
जब लौटे तो,
भीगे-भीगे से थे
उन्हे रखकर
किसी किताब मे,
एक सिगरेट जलाकार तन्हाई से लड़ता हूँ
फिर खोलकर खिड़की
बाहर की दुनिया तकता हूँ
सर्दी का सूरज कितना भला लगता है ,
ठंड है,
लिहाफ़ ओड कर निकला लगता है

आते-जाते लोगो ने इस रस्ते को ज़िंदा रखा है
गोया हर शक्स ने अपने दिल मे
कोई क़िस्सा छुपा कर रखा है
कुछ चेहरे इस सड़क पर जाने-पहचाने लगते है
उन बच्चो के बस्ते अब पुराने लगते है

बंजारो की तरह भटका दिन
अब शाम खीच लाया है ........
उदासी के कुछ टुकड़े भी साथ लाया है
सड़क के कोनो पर
मूंगफ़लियो का ढेर उग आया है
काले बादलों से छेड़खानी करता
चाँद भी जगह बदल-बदल
नज़र आया है

मकई के दानो की गंध
सर्द हवा मे घुल गयी है
कुछ अलाव जल उठे है
उसके इर्द-गिर्द लोगो के
तजुर्बे पिघल रहे है

पहाड़ो की शाम
रात सरीखी लगती है
अपने साथ ढेर सारा
अंधेरा उठा लाती है

अपनी चाय की प्याली
मे कुछ यादे डूबोता हूँ
भरी हुई ऐश-ट्रेय को
पानी से भिगोता हूँ
सिगरेट की ख़ाली डीबी पर
तेरा नाम लिखता हूँ
कैसे कटेगी लंबी रात .........
तेरी तस्वीर देखता हूँ

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