2008-08-29

इन मुई गोलियों का कोई मजहब नही होता


छत से नीचे झाँककर देखता हुआ वो आदमी जिसकी टांग पकड़े दूसरा आदमी खड़ा है कह नही सकते की गोली उसके पार से निकल जाये ओर वो वही मर जाये ,सरकार उसको इस काम की शायद सात या आठ हज़ार रुपये महीना देती है....पता नही वो किस गाँव का है ?उसके गाँव में शायद केबल ना हो ,उसकी बीवी अपने रोजमर्रा के काम में उलझी हो ओर उसकी बेटी स्कूल गई हो ... १८ घंटो के बाद भी अगर वो जिंदा रहा तो कोई उसका इंटरव्यू लेने नही आयेगा..उसे सबसे पहले यही मालूम करना है की गोली किसको लगी ....उसने अपने दो साथियों को गिरते देखा था .....उसके बड़े अफसर शायद उसे एक दिन की छुट्टी दे दे .........


छोटे के स्कूल से .....परचून की दुकान तक
कितनी सरहदे खींची हुई है अब भी गाँव मे.......

फ़ौजी की लड़ाई मरने के बाद तक चलती है




दो दिन पहले जम्मू मे १८ घंटे लड़े जवानो के लिए

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