2008-10-03

कितने आसमां ?

गो कि  मुख्तलिफ किस्म की मसरूफियत  है  बाज़ मर्तबा किसी अजनबी से देर तक  कम्प्यूटरी गुफ़्तगूं ज्यादा आसां है  बनिस्बत इस शहर में कुछ किलोमीटर की दूरी पर किसी दोस्त से रूबरू मिलना .फुर्सत भी ख्वाहिशो कि फेरहिस्त में में अपना वजूद बनाये हुए शामिल है   . शाम को क्लिनिक आते वक़्त रास्ते से गुजरता हूँ सड़क के दोनों ओर नजर डालता हूँ ..इश्तेहारों की दुनिया ही जैसे असल दुनिया है सबने अपने अपने सच के बड़े बड़े होर्डिंग लगा रखे है . कुछ दूरी पर एक 6 साल का नन्हा सा बच्चा अपनी 3 साल की बहन की साइकिल ठीक कर रहा था,उसके घुंघराले बाल है .वो इस कदर साईकिल मे झुका हुआ है कि मन करता है गाड़ी से उतर कर उसकी मदद कर दूँ .
बाज लम्हे  जब गुजरते है आप उनसे बेपरवाह होते है  वे आहिस्ता में आपकी मेमोरी सेल में जमा होते जाते है .फिर किसी रोज अचानक वे  जिंदगी में बिना डोर बेल बजाये यूँ दाखिल होते है के लगता है जैसे वक़्त ने कोई मुआवजा हाथ में रख दिया है . एक रिवाइंड  बटन दबता है उन मेमोरी सैल में फौंरन  छलांग लगवाता है .
 पल्स पोलियो का वो दिन याद आता है , जब हम एम् .बी.बी.एस के फाइनल ईयर मे थे ओर हम दो दोस्तों बतोर ओबसर्वर    सूरत के एक इलाक़े में थे .  5 साल तक के बच्चे तक को पोलीयो ड्रॉप पिलानी थी. मुझे याद है मौसम करवट ले रहा था सब अपना सामान समेट रहे थे . वो अपनी छोटी सी साइकिल  के  पीछे ने 3 साल के भाई को बिठा कर लाया था. कुछ देर  जाने क्या देखता रहा फिर बोला था "अंकल" इसको भी दवा पिलायो ना". उसकी उम्र शायद छह रही होगी . उसके घुंघराले  बाल उसके छोटे भाई से एक दम मैचिंग मैचिंग  थे ऊपर आसमान में बादल गरजा  था ओर नन्हे ने डरकर बढे  का हाथ पकड़ा था .इतने सालो  बाद भी वो सूरते वैसी ही रिकौल होती है. वैसी ही.

टेक्नोलोजी के इस युग में क्या सब कुछ बदल गया है ? पढ़-लिख कर हम सिर्फ़ अपनी असहमतियों को अलग अलग किताबो से इकठ्ठा कर जमा करके रख रहे है ,हमारी सोच की ताकत उस गली की ओर मुड गयी है जिसमे सिर्फ़ अपने फायदे -नुकसान है ,जिसके मुहाने पर बड़ा बड़ा दुनियादारी लिखा हुआ है .
रिक्शे वाला अब भी हाथ से पसीना पोछता है ,मंजिल पर पहुंचाकर सहमे सहमे पानी मांगता है ओर उसे अगर फ्रिज का ठंडा पानी गिलास में भर कर दे दिया जाए तो असहज हो उठता है ,उसे इसकी आदत नही है वो फ़िर भी अपनी हथेली में पानी उडेल कर ऑक से पीता है मुझे न जाने क्यों . मुंबई के जसलोक हॉस्पिटल का वो करोड़पति बाप याद आ जाता है जिसके १८ साल के बेटे को कैंसर था उसने मुझे आंसू भरी आंखो ओर रुंधे गले से कहा था की "मैं सोचता था की पैसे से सब कुछ खरीद लूंगा पर अपने बच्चे को नही बचा पा रहा ....

.कही कोई तो ईश्वर है जिसने कुछ अपने पास रखा हुआ है .....!

कही जुस्तजू की ऊँची परवाज है
कही सतरंगी धनक वाले तसव्वुर है
कही गुमानो के सूरज है
कही हकीक़तो  की बर्क़ है
कही हौसलों के परिंदे है
कही तअल्लूकातो  का पूरा चांद है
कही मरासिमो के टूटते तारे है
कही रवायतो की धूप है
कही अदब की छाँव है
कही जनून की बदली लिये हुए ...


हर उम्र का एक अलग आसमां है !!








परवाज=उड़ान ,तस्सवुर=कल्पना ,बर्क़=बिजली
हिज्र=जुदाई ,मरासिम =रिश्ते

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