2009-02-03

ज़िंदगी है एक मुकम्मल किताब ...आप क्यो धीरे -धीरे पन्ने पलटते है


सके पास उतनी ही खुद्दारी है जितनी जीने के लिए जरुरी है उसके घर में कोई किताबो की शेल्फ नही है .शायद ही .किसी लेखक का नाम उसने सुना हो , कोई शेर उसे मुह जबानी याद नही है .न उसे गिटार बजाना आता है न कविता लिखना . कभी कभी अपनी " नन्ही' को सुलाते वक़्त वो किसी गीत को लोरी में तब्दील कर लेता है ओर उनके बीच में अपनी तरफ से कुछ शब्द. यही उसकी रचनाधर्मिता है ,स्कूल की कम्पलसरी हाउस मीटिंग के अलावा शायद ही किसी मंच से उसने दो शब्द बोले हो . उसने कभी कोई व्रत नही रखा .ना किसी भगवान् की तस्वीर अपने ऑफिस की दीवार पे लगायी . हॉल में किसी भावुक सीन पर वो चुपचाप रोता है ..किसी बर्थडे पर वो शायद लेट पहुंचे . पर किसी मौत पे उसकी हाजिरी लाज़मी है . अक्सर शाम को बच्चो के साथ पार्क में फूटबाल खेलता दिख जाता है , कभी ऑफिस से लौटी अपनी पत्नी के लिए उसे चाय बनाने में कोई हिचक नही होती है . अपने बूढे माँ बाप की डांट वो अब भी सर झुका कर खाता है ,  दोस्तों के लिए वो अब भी अपनी "एफ.डी" तुड़वा देता है ..उसका चेहरा इतना आम है कि उसे याद करने के लिए आपको दिमाग पर जोर देना पड़ता है ..


अजीब बात है फ़िर भी पिछले कई सालो से चित्रगुप्त की रेटिंग में वो टॉप टेन में है .





त्रिवेणी -






चाँदनी रात मे भी ख्वाब नज़र नही आते
सोचता हूँ ब्रश लेकर फिर सफेदी भर दूं ..........


गर्द से कितना पीला पड़ गया है चाँद

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