2009-02-23

एक सिक्के में जो देता था ढेरो दुआये ,मोड़ पे अब वो फ़कीर नही मिलता ..


कहते है रेलवे स्टेशन कभी नही सोते ...दिसम्बर की उन सर्द सर्दियों में उस रोज मुंह चिडाते कोहरे में ऐसे ही जगे दिल्ली रेलवे स्टेशन पे उस रात हम तीन दोस्त मौजूद थे ..एक ओर कुछ कागज -कबाड़ जला कर . कुलियों के बनाये हुए जुगाडू अलाव थे .दूसरी ओर किसी भी रेलवे प्लेटफोर्म पे होने वाली वही गतिविधिया , तीनो दोस्त वापस मेडिकल कॉलेज सूरत जा रहे थे . रात १० बजे की जम्मू-तवी मे रिज़र्वेशन ..कोहरे की वजह से अनिश्चित वक़्त में झूल रहा था .....तय हुआ की अब कुछ खाया जाये ...
दुनिया चाहे चाँद पे पहुंचे या मंगल ग्रह पर हिन्दुस्तानी माँ आज भी सफर पे अपने बेटे को आलू -पुरी ओर आचार की फांक रख कर देगी .आप चार कहेगे वो आठ रखेगी ...जाहिर है तीनो ने जब खाना खोला तो आलू पुरिया ही थी . सूटकेस को तिरछा करके अखबार बिछाया गया ,वैसे भी पिछले दो घंटो से सिगरेट ओर चाय पी-पी कर फेफडे ओर पेट दोनों गाली देने लगे थे ,एक हफ्ते से घर मे रहने से फेफडो को भी इस धुंये की आदत सी नही रही थी ,घर जाकर करिश्माई तौर पे जाने क्यों सिगरेट की तलब ख़त्म हो जाती थी ओर भूख बढ़ जाती थी ओर उस एक हफ्ते मे आलू के ,गोभी के ओर तमाम परांठे भी माँ देसी घी मे तिरा कर खिलाती थी जैसे एक हफ्ते मे ही हमे गामा पहलवान बना के वापस भेजेगी ....
"रॉबर्ट- लुड्लाम" के किसी नोवेल मे घुसे तीसरे दोस्त को पूरी मे आलू डाल के उसका रोल बनाके मैंने उसे पकडाया ही था कि नीचे जमीन पे लगभग घिसटता एक बारह -तेरह साल का लड़का ठीक सामने आकर रुका ,मैले - कुचले से कपड़ो मे उसने दो कमीजे अपने बदन से ठंड को रोकने के लिए लिपटा रखी थी ,उसके हाथ मे ब्रश था दूसरे मे बड़ा सा कपड़ा जिसकी कई तहे बनाकर वो शायद फर्श पे चलता था ,उसके कंधे पे एक खाकी रंग का मोटा सा बस्ता था जिसमे जूते- पालिश करने का सामान था । उसने एक नजर हमारी आलू-पुरी पे डाली फ़िर हमारे जूतों को घूरता हुआ बोला "पोलिश करवायेंगे ? मेरे दोस्त ने उसे आलू-पुरी का एक रोल ऑफर किया तो उसने अजीब से अंदाज में उसे घूरा "पोलिश करवानी है "?मेरे दोस्त ने हामी भरी ओर अपने जूते उतार दिये ,जब तक वो पोलिश करता रहा उसने आलू पूरी का वो रोल अपने हाथ में रखा ।हम दोने ने स्पोर्ट्स शूस पहने थे ....."कितने पैसे " मेरे दोस्त ने पूछा .तीन रुपया ?मेरे दोस्त ने दस रुपये का नोट निकाला ...."छुट्टा नही है साहेब"
मेरे पास भी नही है ,अभी ट्रेन जाने मे वक़्त है तू इधर उधर घूम ले जब हो तब दे देना .वो लड़का एक टक मेरे दोस्त को देखता रहा ......उसके घुंघराले लंबे बाल माथे पे गिरे ,उन्हें हटाते हुए वो कुछ देर तक ठिठका रहा फ़िर आलू पूरी पे एक निगाह मार के घिसटता हुआ आगे चला गया ...हमने आलू पूरी ख़त्म की ....हम दो लोग उठकर आगे जा के एक चाय के स्टाल पे खड़े हुए वहां तीन चाय का आर्डर दिया ....एक सिगरेट फ़िर जल गयी .कितने पैसे "?मैंने पूछा . तीस रुपया . मैंने जेब से सौ का नोट निकाला ,साहेब छुट्टा दो . मैंने पर्स टटोला तो उसमे छुट्टा नही था ,मेरे दोस्त ने अपने पर्स मे से कुछ पैसे निकाले तो ढेर सारे सिक्के छन छन करके उसके पोलिश किये हुए जूतों के पास गिर गये . . मैंने उसे देखा तो उसके चेहरे पे मुस्कान आ गयी.....हम दोनों चाय के कुल्हड़ हाथ मे लिए लौटे तो वहां वही लड़का हमारे . तीसरे दोस्त के पास उकडू हो के बैठा था .....
उसने हथेली मेरे दोस्त के आगे फैला दी "साहेब आपके बाकी पैसे ".

११ साल पहले .... दिल्ली के रेलवे स्टेशन की एक रात जो शायद अब तक हम तीनो के सीने में जगी हुई है


त्रिवेणी -


तुम चाहो तो कोरे काग़ज़ पर आडी तिरछी रेखाये खींच दो
कुछ रिश्तो को कभी लफ़्ज़ो की दरकार नही रहती.....

फ़ौजी की अनपढ़ माँ ख़त को सीने से लगाकर सोयी है

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