2010-02-05

पिछली तारीख के आइनों का डीप फ्रीजर

चिरकुट" दरअसल हमारे देश की एक नेशनल गाली का शिष्ट अनुवाद है ...हम इसके अविष्कारक को रोज मन ही मन सैल्यूट ठोक देते है ..कितना आसान है न गला फाड़ कर चिल्लाकर कहना ..."अबे चिरकुट"....कोई बुरा मानने से पहले पडोसी से पूछेगा "चिरकुट माने "?
कल रात हम उंघियाये से  हम वैसे ही  सिल्वेस्टर इस्टालिन  की एक मूवी देख रहे थे ..."डिमोलीशन मेन"  कई सालो बाद फ्रीज करके रखा पोलिस वाला ओपन किया  जाता है ..उस नए युग में  .जहां गाली देना अपराध है ......एक ठो गाली. पे फ़ौरन मशीन हरकत में आ जाती है .ओर आप पे जुर्माने की पर्ची कट जाती है ....सोचता हूं  गर हमारे यू. पी में वो मशीन आ जाये .तो ओवर लोड  से कुछ ही घंटे में क्रेश हो जायेगी...जहां दिन की शुरुआत ही...भेन ###...से होती है .....अगर पेशेंस  का  भी  कोई  नोबेल  प्राइज़  होता  तो यक़ीनन   हिन्दुस्तान के बस  ड्राईवरो  के पास कई ट्रोफी  जमा  होती ... ..कोई भी कही से निकल जाता है ...
एक ओर हाई -वे होता है ...दुनिया दारी का .....जिस  पे  चलने   के  लिए वैसे भी  जमीर को   स्टेपनी के टायर सा लटका  कर चलना पड़ता   है ..खुदा  भी  कोई  इंडिकेटर नहीं   देता ......कम ही लोग होते है ...जो अपनी  गड्डी  के पीछे लिखते  है "आपां तो ऐसे ही चलेगे "....
.खैर ......यूँ भी  साला  आदमी इच्छायो का डिवाइस है ....एक अभी ख़त्म नहीं होती के दूसरी सर उठाने लगती है .....शुक्र है ..यादो  का हैंगओवर  हेडेक  नहीं  करता ....पर  जल्दी नहीं उतरता .... 
आज वही है...... मारी लोबी के  ठीक बीचों बीच मुस्कराती हुई  बड़ी मेहनत से पैंट की हुई एक रिंग बेल थी .... , जिस पर ये लिखा था.... ‘.
keep your finger here and say loudly “ding-dong”…
मैं  अब भी  अक्सर उसे  दबा देता हूँ…....

ससे पहले मुलाकात कब हुई थी याद नही ,दोस्ती कैसी हुई .....ये भी याद नही वो मुझसे ४ साल सीनियर थे  उसके मुताबिक हम मे दो चीजे कॉमन थी एक तो नॉर्थ इंडियन होना दूसरा एरियन  होना ,मैं मार्च के आखिरी हफ्ते की पैदाइश हूँ ओर वो अप्रिल के पहले हफ्ते की.... बाकी हम दोनों में ओर कई बड़े अंतर थे मसलन के iq मे ….वो १४४ का लेकर पैदा हुए थे ओर हम सामान्य …खैर हमारी दोस्ती हुई ओर हमने उनसे उधार मांग कर खूब अंग्रेजी नोवल पढे ओर अंग्रेजी की जुदा -जुदा किस्मों की गालिया सीखी ....जब कभी हमारा फोरेन की सिगरेट पीने का मन होता हम उनके उपरी मंजिल के  कमरे में जा धमकते ..वे न केवल हमें एक ठो विदेसी सिगरेट पिलाते बल्कि हमारी बेहूदा कविताएं भी बड़ी तसल्ली से सुनते .....कहते है वक़्त ने सबकी स्क्रिप्ट लिख रखी है....हम  खामखाँ ही इतराते फिरते  है ...एक ही होस्टल की एक ही कॉलेज की अपनी अपनी जुदा दुनिया  होती है ..फिर उसकी .जुदा गलिया..अपनी अपनी गलियों में रुकते -गिरते- भागते -दौड़ते कुछ साल गुजर गये..........


उन्होंने उन हालात ओर उन वक्तों मे “ओर्थोपेडिक “ मे पी. जी मे ज्वाइन लिया ......जब इस ब्रांच मे जाना इराक मे युद्ध पर जाने जैसा ही था ,काम का बोझ ,सीनियरों की मार ,मानसिक प्रताड़ना ......नींद की कमी ,ओर तमाम अनगिनत दूसरे कारण थे जिसके मद्देनजर बहुत से लोग बीच मे ही डिपार्टमेंट छोड़ भाग जाते थे या अगले साल किसी दूसरी ब्रांच मे एडमिशन लेते थे । हम सब को लगा की ये दुबला पतला लड़का दम तोड़ देगा या भाग जायेगा.....कुछ महीनो की खामोशी के बाद ... अब आधी रात को होस्टल का फोन बजता (तब हॉस्पिटल ओर होस्टल के दरमियाँ इंटर कनेक्टेड फोन हुआ करता था..........

फोन पर उनकी फुसफुसाती हुई आवाज होती “ ,बहुत भूख लगी है ..... इतनी रातो को सूरत शहर मे दो ही जगह कुछ खाने को मिल सकता था या तो शहर के 5 सितारा होटल मे या रेलवे स्टेशन मे ...... तो  औकात के मुताबिक ५ किलोमीटर दूर रेलवे स्टेशन चुना जाता ..मेनू में सिर्फ अंडे की वेरायटी होती ......कोई भी दो जने कुछ लेकर आते , हॉस्पिटल की चोथी मंजिल पे सुनसान से गलियारे मे या किसी कोने मे वो पाव ओर ओम्लेट ठूस ठूस के खाते ओर गोल्ड -फ्लेक के इतने लंबे कश लेकर पीते.....जैसे फांसी पे चढ़े किसी कैदी को आखिरी सिगरेट दी जा राही हो....... तब उनके बदन से एक अजीब सी गंध आती.....यूँ भी हर वार्ड की अपनी एक गंध होती है उसके जिस्म मे भी वही होती ,...... ,उस दौरान भी उसका सेंस ऑफ़ ह्यूमर जिंदा रहता । “कोई शेर है इस मौके पे आर्या ? उन्होंने मुझे कभी अनुराग नही कहा आज भी नही बुलाते ..... फ़िर वे अंधेरे मे तेजी से घूम हो जाते.................


होस्टल के कमरों की चभिया या तो बाथरूम की दीवारों  पे ओंधी पड़ी मिलती है ..  .या खास कोनो  मे उंघती ...... दोस्तो को ठियो की ख़बर रहती.है .. ......कई बार जब हम कोई लेट मूवी देखकर लौटते तो फर्श पे एक गंधाई शर्ट मुंह चिडाती मिलती ...ओर अलमारी  से  कोई खाली हेंगर बिस्तर पर ...  ....ये वर्मा जी की आमद का साइन होता.......ओर ..मुश्किलों के ऐसे कई दौर  पी जी के जो  से गुजरने के बाद ....वे सीनियर हुए ...... फ़िर पास भी...हो गये ...... ओर नजदीक के कम आबादी  वाले उस शहर दमन के एक  हॉस्पिटल से जुड़ गये  … "ड्राई  -स्टेट" में रहने  के कारण   हम दोस्तों ने   उसे   "वेट सिटी "का  तक्खलुस  भी  दिया था ..... दिलजले ओर प्यार  में टूटे  आशिक वहां के दरिया में अक्सर अपना गम उड़ेल आते ..अलबत्ता गम में  अपनी अपनी केपिसिटी के मुताबिक किसी ओर चीज को भी मिक्स करते ......खैर

क़्त ने  फिर  पहिया  घुमाया .... ओर हमने पी .जी ज्वाइन की , इधर पिताश्री रोज हमे कोई नया रिश्ता बताते ओर हम रोज उसमे कोई नुक्स निकालकर मना कर देते ,  जब हम में ओर पिताश्री मे  फोनिया कोल्ड- वार शुरू होकर लम्बी खिंची तो एज यूजवल माताश्री ने  संधि दूत के  अपने रोल  में एंट्री ली ... .....ओर हमने उस शान्ति -प्रक्रिया के तहत एक लड़की से मिलने की हामी भर दी.....पता लगा लड़की दमन में है....... …. …..हमें लड़की से ज्यादा वर्मा जी से मिलने की उत्सुकता थी.....वर्मा जी होटल की उस औपचारिक मुलाकात में हमारे साथ रहे .....  ...  
वापसी में हम दोनों डगमगाते हुए उनकी फटफटिया पे उनके नए नए खरीदे फ्लेट पे पहुंचे....चूंकि भाभी श्री अपनी पी. जी के सिलसिले मे कही ओर  थी , तो वर्मा जी भी" बेचुलराई- जीवन" का आनंद ले रहे थे ..  ,उन्होंने महँगी वाइन खोली ....फर्श पे गद्दा डाला..ओर होस्टल की पुरानी रवायत के मुताबिक .जगजीत सिंह  भी महफ़िल में शरीक हुए ....कुछ पुरानी ओर नयी यादो के कोकटेल बना....गोल्ड फ्लेक  की फेक्ट्री से निकले  धुंए फेफड़ो में भीतर  गये ...  ...फ़िर अचानक हमारे वर्मा जी उठे ओर बोले “चल “.....वे आगे आगे हम उनके पीछे -पीछे .....वे दूसरे कमरे के दरवाजे पे खड़े हुए..एक बड़ा ताला हमारे ओर  कमरे के दरमियां था ...कुछ देर ताले से जूझने के बाद  दरवाजा खुला  ..पूरा कमरा खाली ..  बीचों-बीच एक काले रंग का बड़ा सा सूटकेस.......उन्होंने उसे खोला ..वही हरे कागज जो  दुनिया चलाते है .....
"आर्या जितने चाहिए ले ले "मैं हंस पड़ा था ,...वर्मा जी सेंटिया गये थे .....
.बकोल उनके  "सेंटियाना" एरियन  के   जींस  में  होता  है ...ओर उसके जन्म प्रमाण पत्र में बोल्ड अक्षरों से लिखा हुआ ...... 
ब्रेकेट  में .कहूं तो  .....हम दोनों   एरियन  है  
वो किसी फ़िल्मी शोट के माफिक था ....पर बिलकुल सच्चा ....खालिस सच्चा .....
वर्मा जी मेहनती थे ,अपनी काबिलयत के कारण जल्दी ही ख्याति पा गए ओर अच्छी खासी प्रक्टिस भी अर्जित कर ली...पर जैसा की अक्सर होता है
यरपोर्ट से फोन करना उनकी फितरत है ....खास तौर से तब जब वे देश छोड़कर परदेस जा रहे होते है ..
एक  दिन  मोबाइल बज उठा
“यार बाहर जा रहा हूँ
“क्यों ?इतनी अच्छी प्रक्टिस छोड़ कर ?
बस कुछ ओर करना  है
कुछ लोग  लोग मूडी होते है ओर बैचेन भी....   ."आपां तो ऐसे ही चलेगे " .वाले .ओर वर्मा जी उड़ लिए ...“,........कुछ साल वहां बिताकर अहमदाबाद के अपोलो मे ज्वाइन किया ही था की ...
फिर एक रोज उनका फोन आया “जा रहा हूँ”
कहाँ पूछना.. सवाल को पूरा करने की रस्म भर  होता है ....
ओर वर्मा जी ब्रिटेन उड़ लिए .अब सुना है  ..... परमानेंटली वही बसने जा रहे है ...
 
न हाल -चाल पूछा ना सलाम किया
जाने क्या बदल गया मेरी सूरत मे ......


पिछली तारीख के आइने बेखबर हो गये

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