2009-01-22

अपने अपने तर्कों से गुजरते हुए


जिस रोज महज़ तीन हज़ार रुपये में दिन रात आपकी कालोनी के दरवाजे पे खड़ा चौकीदार आपको सलाम नही ठोकता है .रोज के इस अपेक्षित आदर को न पाकर आप आहत हो उठते है ,दरअसल ये भी एक प्रकार का अहं है....ठीक उसी तरह जैसे अपने द्वारा किए गए अच्छे कामो की लिस्ट तैयार करके रखना .या उन्हें सार्वजनिक करना ... नेकी के पीछे गौरवान्ववित होने का लोभ है .......खामिया भी इस इश्तिहारी जमाने में खूबिया सी लगने लगी है...
बचपन में स्कूल के कोर्स में पढ़ा एक निबंध याद आता है जिसमे लेखक कहता है की एक शराबी ओर स्त्रेन जहाज़ का कप्तान भी अगर डूबते वक़्त अपने जहाज को नही छोड़ता है तो वास्तव में उसका चरित्र मन्दिर के पुजारी या गिरजाघरों के पादरियों से कही ऊँचा है .....अपने परिवार बच्चो के प्रति अति सवेदनशील व्यक्ति अपने कार्य स्थल या किसी दूसरी जगह असंवेदनशील हो सकता है...यानी सवेदनशीलता के भी दायरे है ....चरित्र के भी ....ऐसा लगता है चरित्र की कई परीक्षाये है जिसकी एक परीक्षा में डिस्टिंक्शन से पास हुआ विधार्थी दूसरी में फेल हो जाता है .... चरित्र की व्याख्या या उसकी माप तोल मुश्किल है .बेहद मुश्किल .....
तो क्या अब वर्तमान समय में अच्छे चरित्र विलुप्त हो गये है या उनकी प्रोग्रामिंग सिर्फ़ १९५० तक ही थी ? या हमने अच्छे चरित्र की कोई जटिल परिभाषा गढ़ दी है जिसके सांचे में अब कोई फिट बैठता नजर नही रहा है ?तो क्या आदर्शो को खीच कर थोड़ा नीचे लाया जाये .....
.सचिन तेंदुलकर को देखता हूँ ..करोडो अपेक्षाओं का बोझ पिछले १८ साल से अपने कंधे पर विनम्रता से ढो रहे है....क्या उन्हें हीरो कह सकते है ....या १९ साल की शगुफ्ता को जो भारी भारी डोनेशन अपनी जेब में लिए माँ बापों की लम्बी कतारों के बीच बिना किसी कोचिंग के मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में पहले प्रयास में सफल होती है .... रेड लाईट एरिया से निकली वो पहली लड़की है जिसके हौसलों की उड़ान का ये पहला पड़ाव है....या पड़ोस में रहने वाली" मित्तल आंटी" जो अपनी बहन की अकस्मात म्रत्यु होने पर अपने से १० साल बड़े किसी ऑफिस में सरकारी बाबू ...अपने जीजा के साथ ब्याह दी जाती है ...जिनके पहले से तीन बच्चे है ..जिनमे से एक मानसिक रूप से बीमार है....अपनी सारी उम्र वे उनमे झोंक देती है...ओर एक उम्र में आकर उनकी एकमात्र संतान उनका १९ साल का लड़का भी मानसिक अवसाद का शिकार हो जाता है ...ओर वे अब भी अपनी उस मानसिक रूप से विक्षीपित सौतेली बेटी की संतान को उसी जतन से पाल रही है....उनकी पारी कभी ख़त्म नही होती ... पर उनके चेहरे पर थकान नही दिखती .. पड़ोस में किसी शादी ब्याह में वे अब भी ढोल बजा कर हँसते -मुस्कराते गीत गाती है.... .... या एक रुपये में एक कपड़ा प्रेस करने वाला धोबी जो अपनी टूटी फूटी साइकिल पे आपको आपका पर्स लौटाने कुहरे भरी ठण्ड में वापस आता है जिसमे डेबिट ,क्रेडिट कार्ड्स,कुछ अधफटे कागज ओर १८०० रुपये कैश है .

चरित्र विलुप्त ? शायद उनकी शक्ले बदल रही है!




आज की "त्रिवेणी"

हर इतवार सवेरे उठकर मीलो पैदल चलता था
जेब मे छिपाकर "मज़हब" पहली पंगत बैठता था.........

हर इतवार अब्दुल पेट भर खाना ख़ाता था

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