2008-09-24

वो मिला तो याद आया हम कितने पेचीदा है


हम सबके भीतर एक ऐसा कमरा छिपा है ,जिसमे हमारी कमजोरियों ,झूठो ओर इंसानी दुर्बलतायो के पलो के ढेर को सावधानी से सकेर कर रखा गया है जिसकी चाभी हम किसी से नही बांटते ,उसकी खिड़की कभी नही खुलती ......अलबता गुजरते वक़्त के साथ वो ढेर जरूर बढ़ा हो रहा है.




आज आपके स्कूल चलना है एक सन्डे की सुबह मेरा पौने पाँच साल के बेटा उससे १०-१२ दिन पहले किए हुए एक वादे की याद दिलाता है ...पहले ही आलस में मै दिमाग में तयशुदा कई कामो की लिस्ट में छटनी कर चुका हूँ...गाड़ी की सर्विस भी मै अगले सन्डे पर धकेल देता हूँ. एक कप चाय ओर टाईम्स ऑफ़ इंडिया के पन्नो में मै इस उम्मीद में उतरता हूँ की कुछ समय बात छोटू अपने दूसरे खेलो में लग जायेगा ओर स्कूल की बात आयी गयी हो जायेगी ..पर कुछ मिनटों बाद मेरे सैंडिल मेरे सामने रख दिए जाते है ,अनमने मन से मै शहर के उस हिस्से में पहुँचता हूँ जहाँ नीचे आर्यसमाज मन्दिर है ऊपर मेरा स्कूल....."आज छुट्टी है इसलिए स्कूल बंद है "मै उसे बहलाने की कोशिश करता हूँ पर वो नन्हे पैरो से सीडिया चढ़ता हुआ ऊपर भाग जाता है...ऊपर एक कोने में बूढा चौकीदार है आवाज सुनकर बाहर आया है .सफ़ेद बढ़ी हुई दाढ़ी.मोतियेबिंध से ढकी हुई अधूरी आँखे ओर एक पुराने फ्रेम का चश्मा ....छुट्टी है पर वो अब भी वर्दी में है .....शायद ये वर्दी ही उसकी पहचान बन गयी है.
"ये मेरे पापा का स्कूल है'मेरा बेटा उससे कहता है ओर उसकी सुने बगैर गलियारे में दौड़ जाता है..बूढा चौकदार मेरे नजदीक आता है ...उसकी बातो का मै सिर्फ़ हां- हूँ में जवाब दे रहा हूँ...मेरा सारा ध्यान अपने बेटे पर है ..मेरे दिमाग में पहले से फिक्स कुछ appointment बैचेनी से चहलकदमी करने लगे है .असहजता के कुछ पल गुजरते है....फ़िर .मै अपने बेटे को बुलाता हूँ .. ....सीडियो के नजदीक खड़ा होकर वो उससे कहता है....
ये मेरे पापा का स्कूल है जब वो छोटे थे ....अब वो बड़े हो गये है ना!
"हाँ बड़े होने के बाद लोग कम बोलने लग जाते है.'....चौकीदार उसके सर पे हाथ फेर कर कहता है फ़िर अपने कमरे की ओर बढ़ जाता है..

आज का तजुर्बा :-
.२४ सेप्टेम्बर ..बुधवार ...
सवेदनाये फ्लैशलाइटों की चमक में चोंधिया रही है फ़िर रिमोट से कोने में धकेल दी जा रही है ,। बाजार वक़्त की पीठ पर बेताल की तरह बैठ गया है....हर ख्वाहिश की E.M.I है ओर उसे बदलने की सुविधा भी.... रिश्तो का एक स्केल है..जिसके नंबर बदलते रहते है......सच का भी बाजारीकरण हो गया है...कई किस्मों के सच अब मुहैय्या है... ..समाज फ़िर एक नये" म्यूटेंट संक्रमण " से गुजर रहा है .... बुद्दिजीवी फ़िर चुप है ..ओर अब सरोकार सिर्फ़ निजी है

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