2008-05-29

हिसाब ?


सोमवार का दिन था  ,देर  से  आँख  खुली तो होश फाख्ता हो गये वार्ड मे राउंड भी देना था ओर ओ.पी . डी  का टाइम हो रहा था.....पानी के कुछ  छपाके  मुंह  पे  मारे  मोटर  सायकिल  की किक्  मारी ओर हॉस्पिटल की ओर दौड़ पड़ा ......सोमवार भीड़ भरा रहता था  ..

बढ़ी दाढ़ी ओर गिल्ट भरा  सर झुकाए ओ.पी.डी मे घुसे. ...भीड़ इतनी थी की हमारे सीनियर ने आंखो आंखो मे एक चेतावनी दी.....पहला साल था ....भूख भी जोरो से लग रही थी ....रात को तीन बजे दरवाजा हमारे  ओर्थोपेडिक   डिपार्टमेन्ट वाले दोस्त ने खटखटाया था ..,महाशय को भूख लगी थी ओर थकान से चूर थे ....दो दिनों से किस्तों मे सोये थे ,रूम  पे कुछ नही था ...वे छिपते -छिपाते आये थे एक घंटे के लिए ... रात के इस वक़्त दो ही जगह कुछ खाना मिलना मुमकिन था या तो शहर के फाइव स्टार होटल मे या फ़िर रेलवे स्टेशन पे .बिस्तर पे लेटते ही वे सो गये ...जेब के हालात  देखते हुए हमने एक  एक जूनियर को उठाया ओर रेलवे स्टेशन से उनके लिए अंडा भुर्जी ओर पाँव लाकर दिए ......इन सब मे सुबह के साढे चार बज गये थे .
वैसे भी उन दिनों ओर्थोपेडिक  मे जिस बन्दे ने दाखिला लिया समझ लो कई कई महीने तक उसे अपने रूम की शक्ल तक देखने को नही मिलती थी काम का बोझ ओर ऊपर से सीनियर की कड़ी परम्परा जिसमे हाथ तक उठाना शामिल था ....बरसों से चली आ रही थी इसलिए कई लोग तो इसी कारण   से ओर्थोपेडिक दाखिला नही लेते थे ....यार थे ,इसलिए सुख दुःख बांटने के तरीके ओर जगह ढूंढ लाते थे  अक्सर किसी वार्ड के किनारे ,पथोलोजी लैब मे किसी रिपोर्ट को  
लेते वक़्त  या हॉस्पिटल के ठीक बाहर किसी चाय की दुकान मे छिपते-छिपाते सिगरेट के कुछ कशो मे बांटते थे खैर कुल मिलकर पिछली रात सुबह ५ बजे के करीब कुछ नींद आई थी ..... सोचा था की बीच मे मौका लगाकर कुछ नाश्ता पानी कर लेंगे पर उस दिन भीड़ इतनी थी की मौका नही लगा .३ नए मरीज वार्ड मे भरती हुए थे जिनमे से एक H.I .V वाला था जिसके सैम्पल भी मुझे ही कोल्लेक्ट करने थे ओर I.V ड्रिप भी क्यूंकि H.I.V मरीजो के सैम्पल ओर ड्रिप सिस्टर नही करती थी ....खैर जैसे तैसे दो बजे  तक कमर दोहरी हो चुकी थी ,भूख के मारे बुरा हाल था ओर मालूम था अभी वार्ड मे भी जाना था ओर H.I.V वाला मरीज चूँकि इन्फेकशियस  वार्ड मे भरती था जो की तीसरी मंजिल पे था .....वहां का काम भी करना था ..
.हम सभी बाहर निकले ही थे की ओ.पी.डी. के दरवाजे पे वो घुसा ...उसे देखते ही मेरी झुंझलाहट बढ गई ,उसकी उम्र तकरीबन १९-२० साल की रही होगी ,उसे नयूरोपथिक उल्सर था जिसके लिए वो अमूमन हर तीसरे दिन ड्रेसिंग के लिए आता था .....हमारे सर ने मुझे इशारा किया ......ओर हम उसे लिए हुए वापस ओ.पी.डी के बीच मे बने ड्रेसिंग रूम मे आ गये ....अकेला होते ही मैं उबल पड़ा
,"ये कोई वक़्त है आने का ? साला  कोई  पिकनिक  पे  आये  हो  या बाग़ मे घूमने की नौकर बैठे है.......
वो कुछ बुदबुदाया ......."क्या कहा ?मैं ड्रेसिंग का समान तैयार करते करते पलट गया ........"गाली देता है ? कहते हुए मैंने उसे एक थप्पड़ मार दिया ......उसकी आंखो से आंसू ढुलक पड़े ..वो खामोशी से सुबकियां लेता रहा ओर मैं ड्रेसिंग करता रहा ....अचानक उसका एक आंसू मेरे हाथ पे गिरा ..
..मुझमे पश्चात्ताप की एक लहर सी दौड़ गई ....इच्छा हुई की उससे माफ़ी मांग लूँ पर शायद ओहदे के झूठे गरूर ने मेरे लब सी दिए .
"यार टाइम से आया करो ?  मैंने नर्म लहजे मे कहा "वैसे देर क्यों हुई ? 
उसने मेरी ओर देखा "साहेब मैं २०  किलोमीटर साइकिल चलाकर हॉस्पिटल आता था ......आज किसी ने मेरी साइकिल चुरा ली  पैदल  आया हूँ......इसलिए देर हो गई ......
एक खामोशी सी पसर गई ऐसा लगा किसी ने मेरे मुह पे जोर का थप्पड़ मारा है ...... ग्लानि ओर अपराधबोध के अवसाद से मैं जैसे बैचैन हो उठा ....एक गुनाह के अहसास ने मेरी रूह को जकड लिया .....मैं सर झुकाए उसकी ड्रेसिंग करता रहा ....ड्रेसिंग ख़त्म हुई तो .....फ़िर कुछ देर उस कमरे मे चहल- कदमी करने लगा शायद उससे आँख मिलाने की मेरी हिम्मत नही थी .... वो खामोश बैठा मुझे देखता रहा ....फ़िर आहिस्ता से बोला "मैं चलूँ साहब फ़िर दवा की लाइन मे भी देर लगेंगी ......वो दरवाजे तक पहुँचा तो मैंने उसे आवाज दी
"सुनो "उसने पलट कर मेरी ओर देखा ........."सॉरी "उसके चेहरे पे एक फींकी सी मुस्कान आई "कोई बात नही साहब ",अगली बार किसी की साइकिल लेकर आऊंगा .
आज इस बात को लगभग ९-१० साल बीत गये है जिंदगी मुसलसल जारी है आज सुबह क्लिनिक आते वक़्त मेरी गाड़ी के सामने एक साइकिल वाला अचानक रुका .... कुछ कहने ही वाला था की उसकी सूरत ने मुझे बरसों पीछे ढकेल दिया .......



वो फलसफे उन किताबो के
वो अदालते जमीर की
वो अहले-दर्द कागजो मे
वो मह्फिलो मे बड़े- बड़े सुखन
सब उठा कर परे रख दो
वो एक शख्स अभी अभी
मेरा सारा "हिसाब" सरे-आम रख गया.........

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