सुबह से छेनी हथौडे खोल रहे है
उसके जिस्म की तहे …।
जिद्दी है मगर रूह उसकी
ना कोई आह है ,ना दर्द की शिकन चेहरे पर
बस इक हवा है
जों दबी दबी सी सिसकिया भरती है
मायूस सी धूप भी
बेसबब चहलकदमी करती है
कोनो पे खामोश खड़े दो खंभे
कुछ गमजदा से लगते है
दूर उस बुत की आंखे भी
सुबह से इस जानिब तकती है
जख्मी बदन से
बेतरतीब सी कुछ दुनिया
बाहर निकली है
कितने वाकये ,कितने हादसे
शिरकत करने आये है
क़त्ल मे शामिल
कुछ लोग भी सर झुकाये है
मुफलिसी दोस्त थी उसकी ,
वो मुफलिसों का दोस्त था
आओं इस फुटपाथ को दफ़न कर आये !
वक़्त के उस लम्हे के बतोर गवाह कई थे .....एक मै , ....मेरी कार ..एक बूढा भिखारी .दो स्कूली बच्चे ..एक अधजली सिगरेट ओर दो बैचेन परिंदे ...जो अपनी जबान में शायद कुछ नाराजगी जाहिर कर रहे थे ... ...
सड़क की छाती अब पांच फीट चौडी है...किनारों पे उसने रंग बिरंगे नये लिबास पहने है ..दो नये खंभे... तिकोने लेम्प सर पे डाले इतराये हुए आते जाते मुसाफिरों को घूरा करते है ... वो मूरत ......वो मूरत मगर अब भी उस जानिब ही देखा किया करती है ...