ईट पत्थरो की इस दुनिया मे
रोजमर्रा की आज़माइशो से
उबकर
किसी शब जब
अपनी आँखे बंद करता हूँ ,
कोई नज़्म मेरी जनिब हाथ बढ़ाती है
मैं नज़्म का हाथ पकड़
ख़्यालो के जीने दर जीने
आहिस्ता- आहिस्ता उतरता हूँ
कुछ लफ़्ज़ो से गुफ़्तगू करता हूँ
कुछ मायनो से उलझता हूँ
उन्हे सिलेवार लगाने की कशमकश करता हूँ
तभी तुम
जीने के दरवाज़े से
मुझे आवाज़ देते हो
मैं तुम्हारा नन्हा हाथ पकड़कर
वापस इस बेहिस दुनिया मे
दाख़िल होता हूँ
ज़िंदगी मुस्कराती है
सच मानो.........
ये दुनिया ख़ूबसूरत हो जाती है
कई दिनों पहले ये नज्म उसी के लिए लिखी थी जब मैं इन्ही नज़मो मे उलझा हुआ था ओर वो मेरे साथ खेलना चाह रहा था ,आप क्या पढ़ रहे हो ? उसने मुझसे पूछा .मैंने कहा "नज्म"उसने दुहराया जब ये शब्द तो यकीन मानिये मुझे इससे पहले नज्म शब्द इतना अच्छा नही लगा । अब भी कभी किताबो की दूकान मे जब मैं कुछ किताबे देखता हूँ तो वो पूछता है नज्म की किताब है ? वैसे ये नज्म मैंने प्रवीण शाकिर जी के किसी ख्याल से प्रेरित होकर लिखी है ....