कभी कभी मन करता है होस्टल के उस कमरे मे वापस -जाऊँ वहाँ जहाँ -तहाँ बिखरे लम्हों को ठूंस ठूंस कर अपनी जेबों मे भर लाऊँ कुछ सिगरेट के , कुछ कागज के टुकड़े उठा लाऊँ कुछ आँसुओ से, कुछ मुस्कानों से अपनी हथेलिया भर आऊँ यार मेरे मैं लौट जाऊँ वो अल्ल्हड़ दिन, वो बेफिक्र शामे दोस्ती की उन लम्बी रातो को आसमां के सीने से खींच लाऊँ सीडियों के पास मिलेगी गिरी हुई टेनिस की कुछ गेंदे , वोलिवोल के उस मैदान की मिटटी उठा लाऊँ यार मेरे मैं लौट जाऊँ हर कमरे मे है कुछ अधूरी दास्ताँ कुछ देर ठहर ,सबसे मिल आऊँ फेफ्डो मे वो हवा भर लाऊँ कोने के उस पनवारी का केन्टीन का बिल...... चुका आऊँ यार मेरे मैं लौट जाऊँ लौकर रूम के तालो मे रखे है कुछ अधूरे ख़त , उन्हें उठा लाऊँ उसका भी दिल धड़कता होगा कभी बचपन के उस प्यार से मिल आऊँ यार मेरे मैं लौट जाऊँ बिन चिटकनी वाले उस बाथ- रूम मे नहा आऊँ जिस्म पे पड़ी समय की ये गर्द उतार आऊँ इस तनहा रईसी से उन दिनों की मुफलिसी खरीद लाऊँ उन रस्तो, उन मोडो पे इस दुनियादारी को फेंक आऊँ इस बेहिस दिल को छोड़ बचपन के उस दिल को उठा लाऊँ सो गयी है मेरी रूह आओं उसे जिला लाऊँ यार मेरे मैं अब लौट जाऊँ |
उन दिनों को जब वक़्त के पायदान में दोस्ती फेरहिस्त में सबसे ऊँची थी ....जब हर हसीन से इश्क हो जाता था ....ओर इश्क का समंदर मीठा हुआ करता था ....जब आसमां इतना छोटा था के उचक कर छू ले ....उन दिनों को ....... जब जिंदगी की बड़ी बड़ी मुश्किलें एक बंटी सिगरेट ओर आधी प्याली चाय में डूब जाती थी ....जब दुनिया के चारो ओर सिर्फ एक चाहरदीवारी थी ....एक सीमा रेखा .. .. उन दिनों को..... जब वक़्त के किसी मोड़ पे ठहरा नहीं जाता था .....जब कच्चे उधडे रास्ते डराते नहीं थे .... ..जब राते अपनी हथेलियों में फलसफे लिए होस्टलो में दाखिल होती थी ......जब राते दिन से छोटी थी .... जिंदगी तब रूमानी थी .....