2008-05-07

बस यूं ही ......

वो खामोशी.......
जिसे ना जाने कौन खीच लाता था
हम दोनों के ....दरमियाँ
आज सुबह..... मुंह अंधेरे
मेरे आँगन मे
ढेरों लफ्ज़ छोड़ गयी है...
अपने हिस्से के ......मैंने समेट लिये है
तुम भी 

अपने हिस्से के उठा लो     ....."सोनां"

कम्प्लेन!!!!
बरसों बाद
जब
अपने  माजी की गलियों के
उस जाने -पहचाने मोड़ पे
रुकता हूँ
बेहिस पड़े उदास से कुछ रिश्ते
आँख मल के हैरां से
मुझे देखते है
फ़िर
फुसफुसा कर कहते है
" एक बार ओर तो कहा होता "


कांच का चांद !!!!
कई बार दबे पाँव खामोश रातो मे
इन चमकती यादो को
फलक से उतार के
दूर साहिल के दूसरे कोने मे
डूबो कर आया हूँ
मेरी आंखो को अब ये 
मुआ चाँद चुभता है......


 



 जब बेख्याली पहलू में सोती है ओर जिंदगी रोज वही दिन   रीवाइंड" करके  आपकी हथेली में दे देती है .....उस जानिब से  नज्मे ऐसे ही किसी सफ़्हे पे आहिस्ता  से उतर आती है


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