2008-10-06

यादो की गलियों से गुजरता आज

शनिवार २७ सितम्बर रात साढे सात बजे नॉएडा -

अट्टा मार्केट में करीम के रेस्टोरेंट के सामने हम दोनों सिगरेट का कश लेते है,मै कभी -कभी उस जैसे किसी पुराने यार के मिलने पर पीता हूँ ,पर हम दोनों में से किसी को भी रामदौस से नाराजगी नही है अजीम पिछले तीन साल से नॉएडा में है .....हर साल अलबत्ता उसकी कम्पनी बदल जाती है इस वक़्त वो एयरटेल में काम कर रहा है उसके चाचा जायसी साहब ढेड साल तक हमारे किरायेदार रहे ओर अजीम अक्सर उनके यहाँ आता रहता ,हम उम्र था इसलिए हम दोनों में छानने लगी ,जायसी साहब का बेटा इरफान जहाँ किताबो में घुसा रहता ,अजीम मुझे मेहंदी हसन की गजले सुनवाता ."रंजिश की सही "तीन वर्ज़न में सुनी ...स्लो ...फास्ट...मेहंदी हसन से मेरा तार्रुख उसी ने करवाया था ,मै सिर्फ़ दो वक्तों पर उसके लिए बददुआ मांगता एक जब वो बैटिंग कर रहा होता ओर दूसरे छोर पे मै बोलिंग ..(कमाल का बैट्समन था वो.)..दूसरा जब वो एक ख़ास लड़की से गुफ्तगुं कर रहा होता ..
जिस तरह मै गुजरात को होस्टल के उस छोटे से समूह से याद नही रखता जो मुझे या मेरे दोस्तों को 'नॉर्थ इंडियन "होने की वजह से परेशान करता था ,वो भी अपनी तकलीफों ओर कडवाहटो को अपनी पीठ पर लेकर नही घूमता वो पांचो वक़्त नमाज नही पढता ठीक वैसे ही जैसे मुझे मन्दिर गये ज़माना हुआ ,उसे भी इमाम बुखारी से उतनी ही नफरत है जितनी मुझे तोगडिया से ..वो भी सैयद शाहबुद्दीन या हाजी अख़लाक़ के बोलने पर उतना ही बैचैन होता है जितना मै राज ठाकरे के ,ना उसके चेहरे पर गज भर की दाढ़ी है ओर न मेरे सर पे चोटी ....
हफ्ते भर की मेहनत के बाद एक छुट्टी वाला दिन ....दो वक़्त की रोटी ... बस यही मेरी उसकी ख्वाहिशे है


जाने क्यों पंजाब के कवि हरभजन की एक कविता याद आ जाती है
तुम्हारे पास ताकत है लट्ठबाज है ,
बंदूके है ओर वक़्त की सरकार पीठ पर है
मेरे पास कागज है ,किताब है
कलम है ओर कविता



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