2009-04-05

इक सबब जीने का ….इक सबब मरने का


भागते दौड़ते उस घर के किसी कोने में ..एक कमरे की अपनी दुनिया में .पेशाब की गन्धो में .किराये पे रखे हुए तीमारदारों के साथ ...जो हर बारह घंटे के बाद बदल जाते है..मशीनों के बीच .एक जिंदगी थमी सी रहती है....कमरे के बाहर दुनिया अपनी नैसर्गिक गति से बिना अवरोध के चलती है..घर का कोई प्राणी आपकी आमद से ठहरता नहीं .....किसी आँखों में कोई जिज्ञासा नहीं...कोई प्रश्न नहीं.....आपकी विजिट के पैसो पर कोई जिरह नहीं होती.... नर्सिंग असिस्टेंट ही आपको दरवाजे तक छोड़ने आता है.....६५ साल की उन आँखों में एक अजीब सी उदासी है जो देर तक आपके साथ तक चली आती है .....
छह साल की आयशा पेराप्लेज़िक है .ओर मै उसके डॉ की भीड़ में शुमार एक नया अस्थायी डॉ...बस एक फर्क से वो मुझे उनसे अलग करती है मेरी मूंछे नहीं है.....दूसरी विजिट में वो मुझे अपनी ड्राइंग दिखाती है ...तीसरी में उसमे रंग भरके ......पिछले दो सालो से वो बिस्तर पर है...दवाई की शीशीया उसके खिलोने है ..एक्स रे ...के कवर से वो डाईगनोस्टिक सेंटर का नाम पढ़कर सुनाती है...दो साल पहले स्कूल बस के एक्सीडेंट में उसकी स्पाइन इंजर्ड हुई है...निचला हिस्सा ???.........उसके पेरेंट्स को प्रोग्नोसिस एक्सप्लेंड है...फिर भी जाने कौन सी शक्ति है जिससे वे उसके जीवन को इन हालातो में बेहतर बनाने के लिए प्रतिबद्ध है बावजूद तमाम प्रतिरोधो के जिनमे आर्थिक पहलू भी है ......
पिछले नौ सालो की पेशेवर जिंदगी के कुछ अनुभव जीवन के एक ओर यथार्थ को सामने रख इसके भीतर मौजूद अनदेखी रिक्तता का भेद खोलते है ..अस्वस्थ शरीर के साथ दूसरे पर निर्भर रहने का अहसास ..आत्मग्लानि ओर कुंठित होता मन.....सामने वाले की आँखों में गुजरते समय के साथ दरकती संघर्ष भावना , टूटती उम्मीदे .....रोज धकेले से गये दिन ... ऐसा मौन विलाप है .....जहाँ रिश्तो की आँखों में म्रत्यु के लिए एक मौन सहमति है ओर निर्णायक सिर्फ ओर सिर्फ वक़्त है... ....हालात से लड़ने के लिए अनदेखे ईश्वर का .....एकमात्र सहारा
पर जब कोई मरीज ऐसी गुहार लगता है“मै अपना ऐसा वजूद नहीं चाहता जिसे होने के लिए ड्रिप दवा,ओर डायलेसिस की जरुरत हो .. मै डिग्निटी के साथ मरना चाहता हूँ मुझे मेरी म्रत्यु चुनने का भी अधिकार दीजिये ... ठीक ऐसे ही जैसे मुझे जीने का अधिकार है... ” तो इच्छा म्रत्यु अथवा यूथनेसिया पर समाज में अपने अपने तर्कों के साथ बहस छिड जाती है.... एक ओर सफरर ओर दूसरी ओर समाज ....याधिपी सफरिंग की कोई डेफिनेशन नहीं होती ...ओर ना दर्द की कोई डाइमेंशन ….. तर्क ...विज्ञानं ..से अलग अपनी अपनी नैतिकता , बची हुई .मानवता . लिए. डॉ एक अनजाने अपराधबोध ओर अपने कर्तव्य बोध की पशोपेश से गुजरते है....... हमारे समाज में भले ही इस पर सार्वजानिक बहस ना के बराबर हुई है पर इस देश की मेडिकल फेटरनिटी भी अक्सर ऐसी बहसे अपने अपने दायरे में चलाती रही है...

इंडियन जर्नल ऑफ़ मेडिकल एथिक्स में डॉ ए के थेरियन का अनुभव आँखों को जैसे एक नयी दृष्टि देता है .... की लन्दन के उनके हॉस्पिटल में जब इमरजेंसी में एक वृद्ध महिला को वे पुन रिसक्सीटेट करने की कोशिश कर रहे थे जिसके सिमटम उसके ब्रेन डेमेज की पुष्टि कर रहे थे .तो वहां मौजूद उनके सर्जरी के हेड जो खुद एक डिवोटेड क्रिश्यन थे ने उनसे कहा "मै तुम्हारी किसी कोशिश में बाधा नहीं डालना चाहता पर यदि इनकी जगह मेरी मां होती तो मै वो सब नहीं करता जो तुम कर रहे हो ...मै उन्हें शांति से म्रत्यु में जाने देता '"
ये दुविधा अक्सर कई डॉ को होती है .क्या वे जीने की प्रक्रिया को बढा कर ओर तकलीफदेह नहीं बना रहे है जहाँ वे जानते है म्रत्यु तय है .या हम जिसे वास्तविक जीवन कहते है वो ख़त्म हो चूका है .मोर्डन साइंस टेक्नोलोजी में में जब हमारे पास आदमी को मशीन के सहारे जिंदा रखने के अनेको हथियार है ..आर्टिफिसियल फीडिंग , डायलिसिस , कंट्रोल्ड रेस्पिरेशन , पम्प सर्कुलेशन ...शायद कुछ मामलो में दर्द से भरे .अमानवीय भी....
कुछ महीनो पूर्व हमारे देश में भी एक सवाल उठा था .. क्या गर्भ में रहे शिशु की जन्म से पूर्व विकलांग होने या किसी असाध्य रोग होने की जानकारी उसके जीने का अधिकार छीन लेती है ?मेडिकल भाषा में सेरेबरल डेथ को म्रत्यु कहा गया ..बावजूद दिल ओर फेफडो के काम करने के ....डॉ थेरियन इस बहस को अपने दो अनुभव से उस दिशा में मोड़ते है जहाँ उम्मीद है जीवन के प्रति आशा ओर किसी दुःख के पीछे कारण ढूँढने की कोशिश...
मेरे दोस्त के एक ऐसा ही असामान्य बच्चा पैदा हुआ तो उसने ईश्वर से पूछा क्यों ?पर जवाब फ़ौरन नहीं मिला ..उसने बच्चे को उसी शिद्दत ओर जतन से चाहा..पर बच्चा उनके प्यार को उस तरह से रिस्पोंड नहीं करता था .जैसे सामान्य बच्चे बढ़ते हुए करते है...उन्होंने जाना की कैसे ईश्वर भी मनुष्य से बिना प्यार लिए वैसे ही स्नेह करता है ......
दूसरा दंपत्ति डॉ था....बच्चे के पैदा होने के तुंरत बाद मुश्किल हालात हुए ..खून चढाने की जरुरत पर उनके कुलीग्स ने उन्हें भावनाओं से उबरने की सलाह दी...वे दोनों हालात से लड़े ...बच्चा ठीक हुआ ...ओर ४ महीने के बाद उसकी म्रत्यु हुई..उनका मानना था ईश्वर ने उन्हें जीवन में एक नया कारण दिया है ...दोनों ने नौकरी छोडी ओर ऐसी सोसाइटी की स्थापना की जिसमे इस तरह के बच्चो की विशेष देखभाल हो सके .जिंदगी का वो दुखद अनुभव उन्हें जिंदगी का एक नया उद्देश्य दे गया .

पर स्थितियों के आगे असहाय होने का अहसास ओर किसी अपने के एक अधूरे जीवन को अपनी आँखों के सामने तिल तिल मरते देखना आसान है ...तब क्या सारी बहसे अर्थहीन ओर सारे ढाढस कोरी लफ्फाजी महसूस होते है ? जीवन -म्रत्यु अनेको अनुतरित प्रश्न सामने लिए खड़े है उनमे से एक प्रश्न ये भी है....
केवल संवेदना ही मनुष्य को दूसरी प्रजातियों से अलग करती है ... ओर इस समाज की लुप्त होती सवेदनशीलता को कैसे कायम रखा जाये वर्तमान में इंसान के लिए ये भी एक चुनौती है..
दो साल या उससे अधिक से कोमा में पड़े हुए इंसान की चमत्कारिक वापसी क्या विज्ञानं को मानव शरीर के अनसुलझे रहस्यों की एक लम्बी यात्रा तय करने को प्रेरित करती है या .......इस बहाने ईश्वर अपने अस्तित्व के कोई संकेत देता है.?

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