उसके एक हाथ में किताब है ,दूसरे में चाय का डिसपोसेबल ग्लास ..रुकी ट्रेन में से वो परदे हटाकर बाहर देखता है प्लेटफोर्म पर बीडी फूंकते कुली के पीछे अर्धविक्षिप्त सा कोई बूढा है ...उसके बराबर में हांफता कुत्ता . ... वो बूढे को गौर से देखता है ओर उसकी दुनिया को .........जहाँ हर दिन एक दुस्हास है ....शीशे के पार गंध नहीं आती पर वो जानता है हर प्लेटफॉर्म की एक सी गंध होती है .... समाज का मेटामोरफोसिस नहीं होता ?,वो सोचता है .....
चाय का घूँट भरते हुए वो फिर किताब के पन्नो से होता हुआ इतिहास में विचरता है .इतिहास कभी कन्फेस नहीं करता .....पर उसके कुछ आरक्षित पन्ने मानो उससे जिरह करते है .अलिखित सा कुछ झांकता है ..... ये महज संयोग है ,किसी युग पुरूष या महान व्यक्ति के नेपथ्य में उसके किसी अपने का ही चेहरा दिखता है .गांधी के पीछे कस्तूरबा .राम के पीछे सीता .लक्ष्मण के पीछे उर्मिला ..बुद्ध . या . विज्ञान का कोई महान ज्ञाता .... ...ऐसे कितने चेहरे है ..जो बिना अपनी हिस्सेदारी मांगे खामोशी से हमें इतिहास का एक उजला पक्ष दे गये है ....क्या नेपथ्य अनिवार्य शर्त है विधान की ......इस नेपथ्य के बिना इतिहास का चेहरा कैसा होता ? वो सोचता है ......पर एक आहट उसे वापस खींचकर वर्तमान में लाती है ...बूढा शीशे पर हाथ टिकाये ट्रेन के भीतर झाकने की कोशिश कर रहा है ....अन्दर कोई उसे भगाने की कोशिश ......ट्रेन चल पड़ी है ...बूढे के हाथो ने जैसे कोई तस्वीर कांच पे छोडी है ...क्या ये भी वर्तमान के नेपथ्य के किसी हिस्से का स्केच है ?
"सूखा" एक आहट ओर उम्मीद की कई आँखे जाग जाती है फलक के रास्ते पर कब से बैठा है पूरा गाँव...... लगता है इस साल फिर "बेईमानी "कर गया बादल |