2011-07-22

उस जानिब से जब उतरोगे तुम !!

वो कौन सा लम्हा है  जो तब्दील   करता  है  आदमी को एक दूसरे आदमी में  !वो कौन सी शै है जो धो देती है पिछले दागो को ...जाने क्या ऊँडेलती  है भीतर के बाहर सब कुछ   छना-छना सा निकलता है ...  .त"आरुफ़  कराती है नए मानो  से जो कहते  है पिछला जो जिया ....सब" रफ -वर्क" था .
.क्या लोहे के बने थे सुकरात - या बुद्द ...या  बायस होकर कोई जुदा  रूह धकेली थी खुदा ने कबीर में ...! दुःख  क्या  अलार्म क्लोक है जिसकी साउंड म्यूट कर छोड़ी   है हमने ? .खुदा कोई अबूझ  पहेली है या ऐसा फार्मूला जिसका तजुर्मा मुमकिन नहीं ......


सुना है
कुछ बरस पहले
यूँ करार हुआ
दोनों के दरमियाँ
बिना जिस्म के
 "एनर्जी " घूमेगी
उस जानिब "गेलेक्सी" में ,
इस जानिब "अर्थ" पे
बिना रूह के
जिस्म अपना" साइकल "
पूरा करेगे !
(गाइड के इस सीन के बरक्स गुजरते हुए .....)



("काइनात में कई तरह की जिंदगी के अमकानात है ! एक अमकान ये भी है कि जहाँ जिंदगी बिना जिस्म के सिर्फ एनर्जी के रोशन नुकतो कि तरह घूमती होगी" - किताब " पंद्रह पांच पचहतर "का पेज नंबर चालीस का एक बयान )

ओर  हां.. शीर्षक.... गुलज़ार  साहब की नज़्म के किसी टुकड़े को औंधा करने से वही करीब में पड़ा मिला 

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