तब उलझनों के मोड़ कम थे .ख्वाहिशे भी कम थी ओर उनका कद भी.स्कूल का फासला अक्सर कदमो से तय होता .रिक्शे की कभी जरुरत महसूस नहीं हुई..गलियों में घूमते घूमते स्कूल पहुँच जाते . स्कूल के बाहर एक चुस्की वाला खड़ा होता था .रंग बिरंगे बर्फ के गोले.शायद बीस पैसे का एक गोला होगा..जेब खर्ची को गिने चुने पैसे मिला करते थे .मां कहती मकान बन रहा है .पैसे जेब खर्ची को कम मिलते .बेचने वाला एक बूढ़ा बाबा था .सफ़ेद उजली दाढ़ी .लम्बे लम्बे बाल ,सफ़ेद कुरता पजामा बस उसकी बर्फ में घुले कई रंग होते नारंगी -पीले- लाल....रोज लौटते वक़्त मै उसके ठेले के आगे खड़ा होता .दोस्त लेते
एक रोज़ उसने मुझे बुलाया .'खायोगे मुन्ना "
".नहीं '
अच्छा नहीं लगता
नहीं ..पैसे नहीं है
कोई बात नहीं ,कल दे देना .उसने रंग -बिरंगा बर्फ का सुन्दर गोला हाथ में रख दिया .
मां से अगले रोज पैसे मांगे .मां ने शनिवार को कहा .शनिवार बहुत दूर था .दो दिन तक उसके आगे से गुजरते वक़्त दौड़ लगा देता.धड़कने तेज हो जाती.अगले रोज वही गिर पड़ा .उसने उठाया .घुटना छिला था.पर डर किसी ओर चीज़ का था ...
"खायोगे मुन्ना "उसने फिर रंग बिरंगा बर्फ का गोला आगे कर दिया
नहीं..
पैसे कल दे देना ..उसने सर पे हाथ रखा .
रंग बिरंगे जादू को मैंने फिर थाम लिया .
अगले दो रोज़ बुखार चढ़ा .. मां पट्टी करती ओर मै बुखार में तपते हुए मां से चालीस पैसे देने का वादा लेता
सोमवार . मां ने वादा निभाया .पचास पैसे दिए ,पर न बाबा था .न उसका ठेला.
कितने शनिवार निकले . ना बाबा दिखा .न उसका रंग बिरंगा जादू !
पुनश्च : शीर्षक " गुलज़ार" साहब से बिन मांगे ले लिया है !