2020-01-18

"तलबे "

तुमसे मिलने को जी चाहता है ,कभी कभी इतनी तलब उठती है की सोचती हूँ कोई बीमारी तो नहीं है। एक शख्स की इतनी तलब ठीक नहीं है। इतनी दफे तुम्हे फोन करती हूँ के अपनी हरकत अहमकाना लगती है। कंप्यूटर पर बेवजह स्क्रीन सेवर बदलती हूँ एक दफे किसी ने कहा था उससे मूड बदलता है ,मेरे ऑफिस आयोगे तो इतना शोर है आस पास फिर भी मै बेहिस रहती हूँ इतने लोगो के बीच ! ऐसा नहीं के मेरे पास मसरूफियत की कोई वजह नहीं होती ,तमाम किस्म की फाइलें टेबल पर इकठ्ठा होती जाती है घर के गैरजरूरी कई किस्म के काम टलते जाते है जो मुझे मालूम है मुझे ही करने है।
मै दिन की मसरूफियत से लड़ती हुई थकने लगी हूँ ,अपने पर इख़्तियार रखती थक गयी हूँ मेरे दिल में मौजूद तमाम गुंजाईशो आज़मा चुकी हूँ ये शहर भी दश्त मालूम होने लगता है।
अकेले कमरे में वापस लौटना !
तुम्हारे बोसो के सीने में मुंह रखकर सोना चाहती हूँ ,सुबह देर तक !
नीलम कहती है " इस मौसम तक आते आते तुम कितना बुझी बुझी सी हो जाती हो ?मोहब्बत में इतना पागलपन सिर्फ औरतो के दिल में होता है मर्द अपने दिल का इस्तेमाल सिर्फ फुरसत में करते है."
एक बे -नाम उदासी सी धंसी है सीने में।
सुनो , किसी रोज अचानक आ जाओ तुम भी किसी फिल्म के किरदार की तरह और हैरत में डाल दो मुझे !

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