बेतरतीब सी कई सौ ख्वाहिशे है ...वाजिब -गैरवाजिब कई सौ सवाल है....कई सौ शुबहे ...एक आध कन्फेशन भी है ...सबको सकेर कर यहां जमा कर रहा हूं..ताकि गुजरे वक़्त में खुद को शनाख्त करने में सहूलियत रहे ...
2008-06-13
बा-अदब बा-मुलिहजा होशियार रोल नंबर एक आ रहे है.
……….उन दिनों होस्टल एक इबादतघर मे तब्दील हो जाता था ... एक अजीब सी खामोशी पसर जाती ....... सूरज रात मे उगने लगता …ओर दिन मे तो बदस्तूर उसे जलना ही होता ....... जिस “बेच ” का एक्साम नही होता वो भी अपनी चाल सुस्त कर देता .शायद . ये एक अलिखित समझौता था .जो बरसों से नियमनुसार चला आ रहा था . ... बाल्टी का डब्बा “ऐश- ट्रे ” बन जाता ... ओर आपकी सिगरेट का कोई “ब्रांड ” नही रहता ..... सीनियर फ़रिश्ते सरीखे हो जाते .........बिन मांगे चाय का थर्मस भरा हुआ ....कुछ सेवा करने वाले आपके कमरे पर समय समय पर पहुंचे होते ..... कमरे की अलमारियो पर चाक से प्रेरक शब्द “ लिखे होते ओर जिनके बीच-बीच मे कही कुछ अपने बनाये हुए “फंडे ” या फार्मूला होते . अमूमन सब की दाढ़ी बडी हुई होती , एक दो अपवादों को छोड़कर (ये वो लोग थे जो या तो बेहद ऊँचा I.Q. रखते थे ,या कुछ नही रखते थे ).
लोकालाईट (डे- स्कॉलर को गुजरात मे इसी नाम से पुकारा जाता है) हॉस्टल मे ही पढने आते थे ,कुछ दोस्त कपड़ो लात्तो समेत शिफ्ट हो जाया करते .........हमारे कमरे के मेन दरवाजे के पीछे “ ग्लेडरेग्स मैगज़ीन ” की कुछ देवियो के निहायत ही खूबसूरत पोस्टर चिपके रहते थे ......जो उन दिनों खास परेशानी का सबब बनते क्योंकि तब हमारे एक दोस्त के मम्मी –पापा गाहे -बगाहे आ जाते , उनके आते ही बाल्टी (जो उन दिनों एशट्रे थी ) किसी अनुभवी फुट्बोलर की माफिक बडी तेजी से एक तगड़ी लात द्वारा एकदम पलंग के नीचे पहुँचाई जाती ओर दरवाजे को पूरा खोल दिया जाता ताकि उसके पीछे के पोस्टर पर निगाह न पड़े . तब भी आंटी बार- बार दरवाजा बंद करती ओर हममे से एक उसे बार - बार खोलता रहता , बाद की रणनीती मे ये भी तय किया गया की एक शख्स अंगद की तरह खुले दरवाजे पर ही खड़ा रहेगा . .(दरसल वो पोस्टर भी कलेक्शन का हिस्सा था ओर नाजुक मौको पे प्रेरणा का काम करते थे .... जो काफी मेहनत से चुन-चुन कर फाड़ कर वहां फेविकोल के मजबूत जोड़ से चिपकाये गए थे)....... यधपि अंकल ख़ुद डॉक्टर थे ,इसलिए चीजों को समझते –बूझते नज़र -अंदाज़ करते थे .कई बार हमे हिंट देते हुए लोबी मे बाहर से आवाज देते हुए आते ,पर आंटी अमूमन दूसरी मांयो की माफिक भोली भली थी .कितने “कोड वर्ड ” इख्तियार हुए की उनके आने से पहले उनके आने से पहले खबर पहुंचे , रूम फ्रेशनर खरीदे गए ,अगरबतिया लायी गयी ……….अनेको रणनीतिया बनी सब फेल हुई . बाद के दिनों मे हमने रणनीतिया बनाना ही छोड़ दिया ।
हमारे खास रूम -पार्टनर शायद 144- I।Q लेकर पैदा हुए थे ,......वे साल भर वोली वाल खेलते ,सिगरेट फूंकते ..... ओर सारा साल खूबसूरत लड़कियों के अवैतनिक सलाहकार के तौर पर काम करते .....किताबो को महज़ एक बार पड़ते ....फ़िर ना जाने दिमाग के कौन से कोने मे फिट कर लेते .......हम ये सोच कर उनके साथ घूमते की चलो देखा जायेगा ...... एक्जाम टाइम मे जब हम किताबो से जूझ रहे होते ओर वो साहिब इंडो पाक ” का कोई क्रिकेट मैच देख रहे होते....... नतीजन हम अक्सर फ़ैल हुए ,वो केवल एक बार …
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होस्टल मे आप को किस्म किस्म के प्राणी मिलते है.......आप सोचिये आप इकठ्ठा पढ़ रहे है ,ओर धीरे धीरे कुछ चैप्टर पड़ते जा रहे है की चलो एक ओर कम हुआ की ......अचानक “धम “ से एक आवाज आती , जो किसी किताब के बंद होने की बड़ी डरावनी आवाज होती ।(जो बाद के दिनों मे काफी परिचित बन गई )ओर एक महाशय टिपिकल अंदाज मे पूछते ,” किसी को कुछ पूछना तो नही है ” ? बाकि के हम चार बडी मासूमियत से उसे देखा करते . उससे डर कर हमारा एक मित्र ने दूसरे कमरे मे अपना बोरिया बिस्तर शिफ्ट करवा लिया .जिंदगी थमी रहती ,एक महाशय अपने पास टाफियो का ढेर सारा डब्बा रखते ओर सिगरेट से कडुवे हुए मुंह को.... उन मीठी गोलियों से बडी तसल्ली मिला करती .
उन दिनों उन लोगो की “ड्यूटी ’ लगती जो एक्साम गोइंग नही होते .उन्ही लोगो का खास फर्ज था सबके नाश्ते पानी ओर तमाम दूसरे तरह के शौक पूरे करना .....जैसे गुटका ,मसाला ,पान ,चाय ,या खास डिश ...
दूसरे कई काम उनके जिम्मे होते मसलन सुबह फला बजे फला को उठाना .....दोपहर मे एक घंटे बाद फला को उठाना ........ ओर जब तक वही डटे रहना है जब तक की वो शख्स पूरी तरह आँख खोलकर वापस मुस्तेदी से अपनी गद्दी पर ना आ जाए गद्दी यानि की पढने की जगह ,सबकी अलग अलग होती ...... इस हिदायत का कारण भी ये था की कई बार जगाने के बाद लोग सो जाते तो ऐसी किसी दुर्घटना को रोकने के लिए ये कदम उठाया गया ...........एक महाशय यूं तो पढने मे बहुत तेज़ दिमाग थे पर सोने मे उन्हें बड़ा मजा आता था ,इसलिए जब भी उनको उठाने के लिए जाया जाता ……वो खास अंदाज मे कहते बस ‘आधा घंटा ओर ” , फ़िर वो आधा घंटा रात के २ बजे से सुबह 5 बजे जाकर पूरा होता .......सालो यही सिलसिला चला .....सालो वे 5 बजे उठते रहे ,सालो वे एक्साम मे अव्वल आते रहे
.पर हर कोई उन जैसा खुशनसीब नही था..... एक महाशय थे जिन्हें अमोल पालेकर कहा जाता था .वैसे ही शरीफ सा लुक... उन्हें इन्सोमिनिया की बीमारी थी जो सुबह तडके बेवफाई कर जाती तो ये साहेब रात भर जागते लेकिन सुबह आते आते ऐसे सोते घुटने मोड़कर की उन्होंने उठाना मुश्किल हो जाता ...........दूसरी ओर तकलीफ थी इन्हे कोंसटीपेशन की . सुबह कई पल इनके बाथरूम मी गुजरते .........आलम ये होता .की जब हम सब तैयार होकर सुबह नीचे खड़े होकर इन्हे आवाज देते .....ये बाथरूम में अपने पेट से जूझते हुए जोर अजमाइश में उलझे होते ......वही से आवाज देते ...ओर नीचे हम घडी की सुइयों को धक् धक् चलता देखते ......थोड़ी देर बाद पसीने से लथपथ .. ये बगैर बेल्ट की पेंट सँभालते हुए ,दौडे दौडे नुमाया होते .... इनकी कमर ऐसी थी की लड़किया रश्क करती थी.
इन दिनों ये ब्रिटेन के बाथरूमो में जूझते है के नहीं ये तो नहीं मालूम पर इनकी कमर अब वैसी कमर नहीं रही है ......अब सिगरेट के बाद टॉफी नहीं खाते ..आँख के बड़े डॉक्टर है .....पर इनकी मूंछे अमोल पालेकर जैसी ही है.