2008-08-04

देस से दूर एक भींगी होली----


कुणाल किशोर
झारखण्ड की कोयला नगरी का धनबाद का ये लड़का यूँ तो सॉफ्टवेयर इंजीनियर है...ओर कुछ समय से अमेरिका के सन प्रांसिस्को राज्य में है ,उम्र में मुझसे छोटा है पर ढेरो तजुर्बे जमा करके बैठा है
ऑरकुट ने मुझे ढेरो दोस्त दिये ये महाशय उनमे से एक है ..एअरपोर्ट से उसने मुझे देर रात सर्दियों में पहली मर्तबा फोन किया था ....उसकी ख़ास बात उसकी हिन्दी है जो अमेरिका में रहकर भी वैसी ही है या यूँ कहे की उसके साथ ओर जुड़ गयी है ....एक जैसे ख्याल... गुलज़ार की त्रिवेणी के अलावा जिस चीज़ ने हमें जोड़ा वो क्रिकेट है... तभी तो २० -२० की जीत पर सन् फ्रांसिस्को में भी डांस हुआ ओर जम कर हुआ इस मर्तबा हमने ये तय किया की उसके भारत आने पर हम मुकम्मल तौर से मिलेंगे .. ....उसके पास एक हीरे का (मै सोने का नही कह रहा उससे ज्यादा कह रहा हूँ )दिल है ...परदेस में रहकर भी इनके लिखे में मिटटी की महक आती है ,आम हिन्दुतानी की तरह ये भी एक भावुक इंसान है जो इनके लिखे को पढ़कर महसूस होता है ...उन्ही की एक याद यहाँ बाँट रहा हूँ.....




...और होली बीत गई| ये मेरी तीसरी होली थी जब मै घर से बहुत दूर हूँ, मीलो दूर, और मैने इस बार भी खूद के साथ बहुत होली खेली| पिछली रात से ही शुरू हो गया, बालकोनी मे बैठ कर पहले मैने यादो की लकडियो मे रात का अगजा जलाया और निःशब्द बैठा उस अगजे की लौ मे मै अपना बचपन और देश मे बीताई थोडी सी जवानी तापने लगा जो मेरे सिगरेट की धुये मे खाँसते मुँह से निकले भस्म साँसो की हौक से और धूँ-धूँ कर जल रही थी और मानो सब कुछ बहुत साफ सा दिख रहा हो और ये कल की ही बात हो.....
....मै पाँच बर्ष का था, मेरे बाबा के बाल पूरे काले थे, माँ के चेहरे मे भी झूर्रिया नही थी| बाबा ने हमे प्लास्टीक की पीली पिचकारी मे लाल रंग थमा दिया और मै आँगन की दीवारो मे पिचकारी की धार से अपने बाल मन की चित्रकारी करता और उधर मेरे बाबा मेरी माँ को रंगो मे सराबोर कर देते| पलट कर जब मै माँ को उस हालत मे देखता तो बाबा को मुक्के से मारता चिल्ला-चिल्ला कर तब तक रोता रह्ता जब तक माँ मुँह धो कर अपने गोद मे मुझे लेकर सुला ना दे| कुछ सालो बाद की होली मे मै अब घर से पिचकारी भर भर कर निकलने लगा और अपने पुराने किराये के मकान वाले उस बील्डीग के १५ परिवरो के हमउम्र बच्चो के साथ होली मनाने का सिलसिला शुरू हो गया| शुराआती दिनो मे गली के शरारती बच्चो ने होली मे बहुत रूलाया क्योकी उम मे मेरे से थोडे बडे होने के कारन वो मेरा कीमती रंग छीन कर मुझे ही उदेल देते| खैर धीरे धीरे हम और बडे हो रहे थे और हमारी होली की परीधी अपने बील्डीग से निकल कर पूरे मोह्ल्ले तक पहँच गई थी और अब हम अपने बील्डीग वाले संगठीत हो कर मोह्ल्ले मे दूसरी बील्डीग के साथी बच्चो को घर से निकाल कर रंगने की मजा का स्वाद चख चुके थे| होली अब रास आने लगी थी, दिन भर भरी दुपहरिया मे टोली बना कर, फटे कपडो मे टिन्ने के डिब्बो को पीटते-गाते, हास्य़ परिहास करते हम सब गाँव वाले कम से कम एक दिन बैर-भाव, जात-पात, ऊँच-नीच भूला कर प्य़ार के एक रंग मे रंग जाते|
...पर शायद मुझे होली के बहुत रंग देखने थे| मेरे दो कमरे का भाडे का घर बडी होती मेरी चार बहनो और दो भाईयो के लिये प्रयाप्त नही था और मेरे पिता ने किसी तरह दुर एक घर बनाया जहाँ बगल मे वहाँ के कोल वाशरी मे काम करने वाले अफसरो की कोलोनी थी| मै उस समय अपने सरकारी हिन्दी विध्यालय मे द्सवी मे पढ्ता था पर मै चाह कर भी अपने बगल के बडे से कोलोनी मे एक दोस्त बना ना सका क्योकी उस 'पोस' कोलोनी के बच्चो के मन मे ना जाने यह धारना बैठ चुकी थी कि उनकी कोलोनी के परिधी से बाहर रहने वाले लोग जिनके घर Dish का connection भी नही और जिनके बच्चे बेचारे सरकारी हिन्दी विध्यालय मे पढ्ते है, उनके स्तर के नहीं| खैर मेरे नये कोलोनी मे भी फिर होली आई और मै रंगो की पूडिया को हर एक पोकेट मे भर कर मै कोलोनी के परिधी मे उस तरह दाखिल हुआ मानो अभिमन्यू अपने को शष्त्रो-अष्त्रो से सुसज्जित कर चक्रव्युह मे घुस रहा हो| पर कोलोनी के अन्दर तो दूसरी दूनिया थी सभांत लोगो की जहाँ ओभरसियर का बेटा तो सुपरवाईजर के बेटे को ही, सुपरवाईजर का बेटा तो सिर्फ इंन्जीनिय्रर के बेटे को हीं रंग लगाता है| मै पूरी कोलोनी का चक्कर लगा कर वापस बेरंग लौटने लगा और पहली बार होली मुझे कचोट रही थी| घर जाने से पहले मैने अपने रंगो को खूद अपने हाथो से चेहरे को रंगा क्योकी मेरे माँ बाबा के कान्हे को होली मे कोई ना रंगे उन्हे गवारा ना होता|
...कुछ होली फिर मेरे ऐसे ही बीते| अब मै अपनी आगे की पढाई के लिये घर से बाहर निकल चुका था और वक्त के साथ होली के बद्ले मायने को सीख रहा था| अब दूनिया सब कुछ के प्रेकटीकल मिनींग सिखा रही थी, होली अब परिवार के सभी सदस्यो को इकट्ठा कर के अपने पास पडोस के लोगो से मिल जुल कर साथ हँसने-गाने, खाने-खिलाने और मिल-जुल कर मनाने के पुराने मानसिकता वाली परिभाषा को नकारते हुये modernise हो गई थी| लडके अभी अभी पार हुये एक बडे त्य़ोहार Valentine's Day की Exhausting feeling से थके थके है और लडकियो को अपने complexion पे risk गवारा नही औरी ऐसे मे होली मे घर जाना कोई जरूरी नही| मै भी जमाने के गुर सिखता रहा और होली मे घर से दूर होता गया और एक बार नौकरी मिली नही कि उसके बाद कभी फुरसत भी नही मिली कि कोई होली घरवालो के साथ बिताऊ|
...काम का दायरा बढता गया, परिवार का दाय़रा छोटा| मै US आ गया और दो होली आई गई सी हो गई| मैने घरवालो को पिछ्ले साल ही ये आश्वासन दिया था कि मै अबकी होली सब के साथ बिताऊगा और सभी मेरे आने की राह देखते रहे| जाने के ऐन वक्त, प्रोजेक्त मे मेरे रूकने की जरूरत आन पडी और मुझे रूकना पड गया| मुझे अब तक मेरी गलती का एह्सास भी नही था क्योकी वक्त के साथ होली के मायने बदल चुके थे और ये इतनी बडी बात नही थी के मै एक और होली घर से दूर रहुन्गा| माँ को मैने जब कहा कि मै इस बार भी नही आ रहा हूँ, माँ ने इतना ही कहा कि बेटे होली मे अच्छा खाना खाना और अबीर लगा लेना|
आज मेरी अगजा की रात थी पर देश मे होली की सुबह हो चुकी थी और मै होली के दिन बनने वाले मेरे घर पर व्यंजनो को बहुत miss कर रहा था| मैने माँ की कही बात याद की और मै देशी रेस्टोरेन्ट मे जम कर खा कर आया| सन फ्रान्सिस्को की रात को निहारता मै अपनी १५ह्वि मंजिल के बाल्कोनी मे बैठ अपने दोस्तो का number घुमाने लगा to wish them Happy Holi. घर का नंम्बर लग नही रहा था और माँ-बाप तो भागते नही, (भागती तो संतान है), मै दोस्तो मे मगरूर रहा उनके GF के साथ होली के चटपटी किस्सो मे अपनी भी होली तलाशता हुआ| आधी रात के बाद जाकर मेरी माँ से बात हुई| मैने माँ से कहा की "माँ तुम और बाबा अकेले हो, बाबा को अच्छा से अबीर लगा दो और सभी पकवान अपने हाथ से खिला दो"| माँ ने मुस्काराते हुये कहा कि "बेटा तुम्हारे बाबा ने तो उसी बार आखिरी बार अबीर को छुआ था जब तुम 1st year मे होली मे आये थे और मै अब पकवान बनाती नही क्योकी बिना तुम लोगो के कोई पकवान हमसे खाये नही जाते| अब अगली बार हो सके तो आने की कोशीश करना और अपने बाबा को अबीर लगाना पर हाँ अपने career को नुकसान पहुँचा कर नही, मै तो ऐसे ही थोडी स्वार्थी हो कर पूछ रही थी क्योकी फिर बहू आने पर पता नही तुम फिर कोई होली हमारे साथ खेल सको या नही? अच्छा ये सब अभी से तु मत सोच, पहले ये बता की तुने आज अच्छा खाया या नही?
मेरी आत्मा रून्ध चुकी थी, मैने माँ से कहा कि माँ आधी रात यहाँ बीत चुकी है, मुझे अगजा जलाना है| और मै बची खुची रात जलाने बैठ गया| बचपन से अब तक सभी होली एक एक कर मुझे याद आती गई| दिख रहा था मुझे कैसे मैने ही छीना था उनसे उनकी होली जब माँ को रंगा देख डर गया था मै, ५ साल का ही था| अगले १० साल उन्होने अपने जज्बात भूला कर हमारे रंगे हुये चेहरो को देख होली खेली| जब आदत सी हो गई थी उन्हे हमारी, हमने अपनी सुविधा से अपनी होली redefine कर ली और किसी की दूनिया बेरंग कर अपने रंग, अपने ढंग भर लिये, छोड दिया उन्हे तब अकेला होली मनाने जब मेरी आन्खो मे गये रंग को साफ करते करते बाबा को मोतियाबिन्द और हमारी पकवान बनाते बनाते मँ को Sugar हो गया|
अगजा जल चुका था और मेरी होली भी हो चुकी थी| भीगा हुआ था मै अपनी दो नयनो कि पिचकारी से, रंग सफेद था पर दाग जा नही रहे थे, रुह तक रिसते हुये कुछ नमक मानो दो बून्द खून से माफी मांग रहे थे|

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कुणाल किशोर्
सन फ्रांसिसको, अमेरिका
होली, २००७

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