रोज सुबह जिंदगी अपने झोले में से नया दिन निकालती है , ओर सूरज अखबार के साथ दिन भर का हिसाब आँगन में फेंक देता है अपनी अपनी जेबों में अपना अपना हिसाब लिए हम पूरा दिन खर्च कर देते है मायूस ओर थका सा चाँद भी जैसे कोई रस्म अदा करने फलक पे आता है ,उम्र इसी हिसाब किताब में गुजर रही है इक उम्मीद मगर रोज सिरहाने साँस लेती है की कल कोई मौजजा होगा .....
कई बार झंझोडा है
गुजरे वक़्त के सफ्हो को
कई बार झाँका है
दीवार के उस जानिब .......
अल्फाज़ फेंके है जोर से दूर तक
नाम लेकर गली गली घूमा हूँ
पिछले कई रोज से
सन्नाटा है जिस्म में
कोई आहट कही सुनाई नही देती
जिंदगी की पेचीदा गलियों में
गुम हो गयी है खुशी
सोचता हूँ थाने में रपट करवा आयूँ