2008-09-01

उस शायर को जो रेडियो मे घुसकर लोरिया सुनाता था





गुलज़ार उन शख्सियतों में से एक है जिन्हें उम्र के सबसे रूमानी दौर हमने ओढा ओर बिछाया.....उनके लिखे ढेरो गीत लोरिया बन होस्टल में मीठी नींद लाते रहे ... वक़्त के सिरे को पकड़ने की भागदौड़ में ...कई चीजे आहिस्ता आहिस्ता छूट गई कई रिश्तो ने चेहरे बदले ....इश्क के समंदर डूब गये..फलसफो ने अपने मायने बदल दिये ... कुछ चीजे मगर अभी भी नही बदली है..दोस्ती आज भी फेरहिस्त में रिश्तो से ऊँची है.......ओर गुलज़ार आज भी वैसे ही है.....जिन दिनों नानावती हॉस्पिटल मुंबई में था किसी ने बताया की वे किसी को देखने आये है ....गलियारे में उन्हें देखा ... हाथ बढाकर उनके हाथ हाथो में लिए ....ओर वे निकल गये ....कुछ वक़्त बाद ध्यान आया की औटोग्राफ लेना तो भूल गया .....आज भी कभी जब मन बहुत उदास होता है उनकी कुछ नज्मे सुन लेता हूँ.... ये नज़्म उन्ही के लिए लिखी गयी है





जिंदगी जब अपने नाखूनों से
रूह के जिस्म पर
कई खराशे छोडती है
ऑर वक़्त किसी सुद्खोर की माफिक
हर शाम नुक्कड़ पर खडा
दिन के हर लम्हे का हिसाब मांगता है .........

लफ्जो के ढेर पर बैठा
एक शायर
आहिस्ता आहिस्ता
अपनी हथेलियों मे छिपे
कई तसव्वुर
छोड़ता है
कितनी रूहे मुस्करा उठती है

सोचता हूँ कभी मैं भी जाकर
उन हथेलियों को छू आऊँ
ऑर
उस "लम्स" को सूरज पर रख आऊँ





लम्स =स्पर्श

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