.दूसरा एस,एम एस बॉम्बे से है...ये साहब .हमारी लॉबी मे रहते थे, पूरे 5 साल (अंडर-ग्रॅजुयेट) के दिनों मे इन्होने कभी साबुन नही ख़रीदा , पूरी लॉबी के साबुनों से मल मल कर नहाते रहे…..P.G के दीनो मे चूँकि हॉस्टिल अलग हो गये तो बाद का हमे पता नही, पर साबुन का कौन सा ब्रांड ज़्यादा बेहतर है इनसे बेहतर कभी कोई नही बता पायेगा….
सुबह ७ बजे -
छुट्टी वाले दिन जब आप चाहते है की आराम से सोयेंगे .पता नही नींद क्यों जल्दी खुल जाती है ...सुबह अब थोडी ठण्ड होने लगी है .छत पर घूमते घूमते मै चाय की चुस्किया लेता हूँ... बराबर वाले गुप्ता जी माली को सामने वाले खाली प्लाट में उग आई बेतरतीब घास को काटने को कह रहे है...पैसे मै दूँगा ...वे कहते है....पैसे शब्द पर उनका जोर है...वे बार बार उसे दुहराते है...मुझसे नजर मिलती है .हम दोनों मुस्करा देते है...मुझे याद आता है जब कभी हम खून देकर आते थे तो शर्ट की बाजू ऊपर चढा लेते थे ...परोपकार भी करना है ओर यश का लोभ भी है....ओर यश का लोभ उम्र के फर्क को नही मानता है...हर आदमी इसकी गिरफ्त में है..
रेडियो ऍफ़ एम पर रॉक ओन का गाना चल रहा है ...."पिछले सात दिनों में मैंने क्या खोया ".....मै सात सालो का हिसाब गिनने लगता हूँ ....बेफ़िक्री की दुनिया ,अल्ल्हड़पन ओर वो मासूम सी दोस्ती........जब प्रेक्टिस करनी शुरू की थी तो सोचता था की बस रोज का एक हज़ार बहुत है...पर जरूरते पूरी हो सकती है लालच नही.... दो घंटो बाद वही दुनिया शुरू हो जायेगी ...काम पर जाने से पहले का एक मुखोटा ...वही सड़के ..वही चौराहे ..वही हॉस्पिटल की गंध .जिंदगी है मगर भागी चली जा रही है .....
आज की त्रिवेणी सुनो इस महीने हाथ तंग है थोड़े पैसे भिजवा देना वो तुम्हारा चाँद जिसको तक कर की थी हमने ढेरो बातें ....... अपने तकादे को मुआ..... रोज दरवाजे पे बैठा रहता है |