दोपहरे मुई कर्फ्यू सा लगाती है शहर में ....एक दो बागी छाते रिक्शो पे सूरज से ....बेअदबी सी जरूर करते नजर आते है .........
जब
किसी रोज
दोपहरी में
तीन चार बूंदे खिड़की से
छलांग लगाकर
इन कागजो पे
अचानक आ गिरती है,
हवा भी
खिड़की के दरवाजे से लटक
कोई शरारत करती है
खिड़की पे टंगा बादल
चिल्लाकर कहता है
"छोड़ो ये गमे- रोजगार के मसले,
छोड़ो ये रोजमर्रा के बेहिस फलसफे ,
छोड़ो ये खामोश मेज ओर कुर्सी
फेंको ये जहीनीयत का लिबास ......."
खिड़की से
...उफक की ओर अपना बस्ता थामे
भागते सूरज को देख
मैं भी सोचता हूँ ...........
क्यूँ ना
"उन्हें भी "एक मिस -कॉल" दे दी जाये
कुछ लोग इस ख्याल से पहले गुजर चुके है ....बेख्याली में पुरानी गठरी को ही खोलना मुनासिब समझा ..... .वैसे कित्ते दिन हुए आपको लॉन्ग ड्राइव पे गये हुए .....बेसबब उन्हें गुलाब की एक अदद डाली दिये हुए |