औपचारिकताओ से निबट ...मै अखबार के पन्नो में उतरता हूं..वे वापस दिखाई दी है ..मेरा चेहरा परिचित लगने लगा है इसलिए मेरे पास आकर बैठी है ....बताती है .बेटी दामाद के पास जा रही है .....दोनों नौकरी पेशा है .....बेटी की डिलीवरी होनी है ..बेटा बहु के पास बोम्बे रहती है .पति को गुजरे दो साल हुए है ......
माँ के कर्तव्य ख़त्म नहीं होते ....मै सोचता हूं ...........मेरी मां तो ट्रेन में भी अकेले सफ़र नहीं कर सकती ....वे अब भी टिकट हाथ में संभाले बैठी है ......बैचेन सी ...
"अनुराग भाई "....कोई आवाज दे रहा है.......
लम्बा चौड़ा शरीर ..सफ़ेद कुरते पजामे के साथ गले में कोई रेशमी कपडा .अंगूठियों से भरे हुए हाथ उसके .पीछे मुस्कराते दो चेहरे .
कैसे है ....
पहचानने की कोशिश कामयाब नहीं होती ........
नहीं पहचाना ....परेश पटेल .... अनुराग भाई ...सूरत जेल..
पीछे वाले अब भी इस्माइल दे रहे है ...
दिमाग का एक टूल फ्लेश्बेक से उठाकर उधना दरवाजे के पास की सब जेल का एक फोटो फ्लेश करता है.....मै चेहरे पे जबरन मुस्कान लाता हूँ..
आप अभी भी वही है सिविल हॉस्पिटल में ...वो पूछता है ..
मै उसे अपने शहर का नाम बताता हूं ...
"तो गांव वापस जा रहे है "...गुजरात में घर को लोग गांव ही कहते है ...मै हामी भरता हूं....
"इधर का कोई काम-वाम हो तो बोलने का" ....परेश की आवाज में एक कोंफिड़ेंस है.....
"भाई अपने इलाके का एम्. एल. ए है "...पीछे एक चेहरा गौरवान्वित होकर इस कोंफिड़ेंस की वजह बताता है....
"सब आपकी दुआ है अनुराग भाई...गांधी नगर में अपनी थोड़ी बहुत जान पहचान है....कोई भी काम हो तो बोलने का ."..
मेरी फ्लाईट का एनाउसमेंट हुआ है ...मै आंटी को देखता हूं वे अब भी पर्स को खोल बंद कर रही है ...परेश से विदा लेते वक़्त वो अपना कार्ड मेरे हाथ में दे देता है.....उम्र की कुछ गलिया वन वे होती है .......ओर हर उम्र के कुछ एजेंडे .......जिंदगी एक वृत्त है ...किसी बिंदु पे आपके अतीत को दुबारा तो मिलना है ...किसी यार की फिलोसफी याद आती है.... ...
सीट पर बैठे बैठे फ्लेश्बेक की खिड़की से कुछ धुन्धलाये चेहरे झांकते है......सब जेल .....जहां समय स्थिर था.... रुका सा ... भावुकता अविवेकी ..मन की असुलझी गुत्थियों में चुभती.. यथार्थ की कई किरचे है ...शाब्दिक जुगालियो ओर लफ्फाजियों से इतर असल दुनिया के किरदार ... ... छह सौ रुपये चुराने के इलज़ाम में पिछले चार महीने से जेल में अपनी पहली पेशी का इंतज़ार कर रहा बीस साल का उड़िया लड़का .. अपने आधे अधूरे बचे कम्प्रोमाइज़ फेफड़ो में टी बी ओर खून में एच आई वी लिए हुए.. पेंतालिस साल का भुवन.. जो रिहाई नहीं चाहता ... .. .उसकी दवा का जिम्मा सरकार पे जो है ....ओर कई चेहरे है ...
कार्ड हाथ से नीचे गिर गया है ......कोई आवाज दे रहा है ......एयर होस्टेस है......
सन २000 में सिविल हॉस्पिटल सूरत से जुड़े नाको प्रोजेक्ट (नेशनल एड्स कंट्रोल ओर्गनाइज़ेशन ) के तहत हर पंद्रह दिन के एक बुधवार मुझे दोपहर के एक दो घंटे जेल में देने पड़ते थे .....पास के इलाके के .किसी रईस. बड़े नेता का सुपुत्र ...परेश उन दिनों किसी मर्डर चार्ज में अन्दर था
...
तवारीख़ के पन्ने पलटते है हर साल अपने -अपने मज़हब का टीका लगा जाते है... हर घंटे धर्म बदल जाता है बेचारी का आदमियों की इस दुनिया में.... जहाँ .जमीर के कई “लिलीपुटीय संस्करण “ बिना अपराधबोध के अपने अपने क्षेत्रफल को हालात के मुताबिक घटा बढ़ा कर रोज नयी दुनिया में फिनिक्स पक्षी की भांति मर कर पुनर्जन्म ले रहे है ....घर के सामने खाली पड़े प्लाट में...दिसंबर की ठण्ड में ... दो कुतियाये इत्तिफाक से एक ही समय में आठ पिल्लो को जन्म देती है ...जिनमे से .एक असमय दम तोड़ देता है ...उन दोनों के बीच एक अबोला समझौता ...जिसमे वे बारी बारी से बाकी बचे सात पिल्लो को अपना अपना दूध पिलाती है ...चकित करता है .....ओर आदमी की शर्मिंदा |