2012-07-04

के आती है जिंदगी आते आते आते ......

ई सुबहे अपनी आमद से सुस्त होती है .कुछ कुछ उदास सी रुकी रुकी. जैसे एंटी एलर्जिक लेकर सोयी हो. सड़क से गुजरता हूँ तो लेटर बोक्स देखकर किसी का लिखा ख़त याद आता है
".तुम जिस शहर में रहते हो वहां बहुत भीड़ रहती है "!
भीड़ !! ओर कई साल पहले उसे रोकने के लिए साल में दो मर्तबा कर्फ्यू लगते थे.
पुराने घर की किसी अलमारी से पुराना सामान मिला था .कलेक्शन में रखे पुराने डाक टिकटों ने मुझे एक्साईट नहीं किया, क्यों ?
क्लिनिक में गुडगाँव में रहने वाला एक कामकाजी खूबसूरत कपल अपनी २ साल की उतनी ही खूबसूरत बच्ची के साथ है . लड़के का परिवार मेरठ से है.बच्ची को पूरी रात डाइपर पहनकर सुलाने से इन्फेक्शन है .
" दिन में बच्ची की देखभाल कौन करता है " पेशे से बाहर मेरी छलांग की आदत अब भी बरकरार है .
" क्रंच "..!! इतनी प्यारी नन्ही क्रंच में कैसे रह पाती होगी ?
 न्यूक्लियर फेमिली की अपनी मुश्किलें है .अपने संघर्ष है .कामकाजी माँ के अन्दर बहुत गिल्ट जमा होता है ! !
शाम की दूसरी तस्वीर है .एक बड़ी जहीन बुजर्ग महिला जो पिछले ६ सालो से पार्किन्सन से जूझ रही है .उन्हें कोई स्किन प्रोब्लम है .दो बेटे दोनों बाहर .छोटे की अभी शादी नहीं हुई है . वो नोएडा में है .पति क्लास वन ऑफिसर पोस्ट से रिटायर हुए है .बतलाती है बड़े दबंग थे.कुछ लोग जिंदगी के आखिरी लम्हे तक सरगर्म रहते है  .फिलहाल किसी साईंकिट्रिक प्रोब्लम से जूझ रहे है .मै उन्हें दिखाने कैसे ले जायूं ?? .वो मेरी मदद चाहती है की के कोई स्पेशलिस्ट डॉक्टर गर घर विजिट कर जाए .
 आपका नोएडा  वाला बेटा क्या वीक एंड पर नहीं आता??.
"आता है पर बड़ी जल्दी में रहता है ".
आपने  नोएडा  शिफ्ट करने का सोचा है ? . ये प्रोब्लम तो लम्बी है ?
  "कई मर्तबा हिम्मत की है  ,बेटे का घर सातवे फ्लोर पर  है .सुबह निकलता है रात को घर आता है.आते ही लेप टॉप लेकर अपने कमरे में . दिन भर हम दोनों  बस खिड़की से एक हिस्से का आसमान  तकते थे ,उन आसमानी फ्लैटों में  सन्नाटा बहुत है . वही पहली दफा मालूम चला "इंतज़ार" 
का भी भी "बी. पी"  से कोई रिश्ता है !
घर लौटते वक़्त का वही तय रास्ता है . एक कोने में सड़क के उस पार खड़ा वही लैटर बॉक्स भी कितना उदास लगता है .बचपन से वही खड़ा है .याद करता हूँ पहला ख़त डालने का कितना एक्साईटमेंट था .अब पोस्टमैन का कोई इंतज़ार नहीं करता . एक दो बैरंग ख़त याद आते है ."गरीबी मेरी दुश्मन " लिखने वाला एक जिद्दी दोस्त भी ! सोचता हूँ आज मिलेगा तो शायद कहेगा ."साले दुःख बड़े ठीठ है गरीबी ख़त्म होने से ही नहीं जाते !"



(extinct  )
ज़मीन पर पड़े उस रंगीन कांच के टुकड़े को दोनों हाथो से,
एक सूरत देकर ,बाबा .
अपना कुरता थामे "नन्हे" से कहते है .
"बरखुदार "हमारे ज़माने में इसे "कंचा "कहते थे !


( ओर हाँ  शीर्षक किसी भूली नज़्म का न जाने कौन सा हिस्सा है )

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