कभी कभी मन करता है सूरज को वापस बादलो में धकेल दूँ ओर रात को आसमान से खींचकर ओर लंबा कर दूँ.....ओर किसी दिन पर बड़ा बड़ा सा 'सन्डे " लिख दूँ......
रोज सुबह उठते है कई ख़्याल
दिन के साथ-साथ
कि
शायद कुछ लफ्ज़ मिले उन्हे
कि
शायद कुछ सफ्हो पर
अपना घर बसा ले वे भी.........
कि
शायद आज़ पूरा कर ले ये दिन
अपना वादा.........
सैकड़ो ज़रूरते अपने मुज्तरिब सर
उठा कर
झाँकती है उस दरीचे से
ओर
आवाज़ देती है दिन को
दिन मसलसल भागता है
शफक होने तक.......
ज़ेहन के फ़र्श पर
बैचन चहल-कदमी करते है
वे दिन के इंतज़ार मे....
थका-झुंझलाया सा दिन
जब लौटकर आता है
फिर
रात की बाँह पकड़ कर सो जाता है.
कितने ख़याल बेघर है यूँ ही कितने रोज़ से?