बचपन ऐसी अलमारी की तरह है जिसके हर खाने मे ढेर सारी बाते जमा होती है ओर कुछ बाते उम्र के एक मोड़ पे जाकर अपना रहस्य खोलती है. तब हम एक ऐसे मोहल्ले मे रहते थे जो लगता था की कभी सोता नही था सड़क के पास एक खिड़की होती थी जो रात भर जागती रहती. रात भर स्कूटर, कार की आवाज आती रहती. बस अड्डो के पास के मोहल्ले उन परिंदों की तरह होते है जो आँख खोल कर सोते है .मैं ओर छोटा दोनों भाई पैदल स्कूल जाते ,जो घर से थोड़ी दूर होता . तब मैं शायद पहली या दूसरी क्लास मे हूँगा अक्सर हम स्कूल जाते जाते बीच- बीच मे कई जगह रुकते
स्कूल जाने के लिए हम शोर्टकट लेते जिसके लिए हमें एक कच्ची गली से होकर गुजरना पड़ता गली के मुहाने पे हलवाई की दूकान थी ओर सुबह -सुबह उसकी भट्टी पर चढी कड़ाई से पूरियों की खुशबू आती ,उसके पास से गुजरते वक़्त मैं अक्सर सोचता की बड़े होने पर ढेर सारी पूरिया खाया करूँगा (जैसे की बड़े होने से ही पैसे अपने आप आ जाते है )
उसी टूटी फूटी गली के दूसरे कोने मे एक कोयले का गोदाम था ,जिसके दरवाजे पे अक्सर आर्मी की वर्दी पहने एक लंबे खुले बालो वाला सरदार जिसकी बड़ी ओर घनी दाढ़ी थी ,अक्सर कोयले को तोड़ता मिलता .कुछ हाथ दूर उसकी बैसखिया पड़ी रहती ,उसके बारे मे तब हम बच्चो के बीच तरह -तरह की अफवाहे थी ओर शायद उनका असर भी हम पर था , उसके पास से गुजरते वक़्त छोटा अक्सर कस-के मेरा हाथ पकड़ लेता ओर मैं भी तेज कदमो से वो दूरी तय करता . हमे देखकर वो अक्सर मुस्करा देता .एक रोज स्कूल की छुट्टी हुई ,गली के उस मुहाने पे उसने हमे आवाज दी ,छोटे का हाथ मेरे हाथ पे कस गया ओर मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा फ़िर भी भय पर जिज्ञासा हावी हुई ओर मैं लगभग छोटे को घसीटता हुआ उसके पास गया उसने हाथ से फर्श पे इशारा किया वहां कुछ अंग्रेजी मे लिखा था
"तुम्हे अंग्रेजी भी आती है ? " मैंने उससे पूछा , मेरे लिए ये बहुत बड़ी बात थी .
फ़िर उसने मुझे बहुत कुछ लिख कर बताया . कुछ पलो मे मेरा सारा डर जाता रहा , फ़िर ये हमारी रोज की दिनचर्या मे शामिल हो गया , रोज मैं लौटते वक़्त उसके पास कुछ देर रुकता , रोज छोटा मुझे माँ को बताने की धमकी देता , रोज माँ पूछती की देर क्यों हुई ? न छोटे ने कभी बताया न मैंने उसकी धमकी मानी.
एक रोज उसने कुछ लिखा जो मेरी समझ नही आया पर आज लगता है शायद उसने कोई अंग्रेजी की कविता लिखी थी वो रोज कोई एक मन्त्र मेरे कानो मे फूंकता "अपनी शक्ल पे कभी गरूर मत करना क्यूंकि इसके ऐसा होने मे तेरा कोई हाथ नही है " ,बड़े होके भी छोटे का हाथ ऐसे ही पकड़ना ओर
न जाने कितने!
मैं नही जानता वो कौन था ? उसका परिवार कहाँ था? किस हादसे मे उसकी टाँगे गयी? मुझे याद है पापा का ट्रांसफर देहरादून हुआ तो मैं उससे मिलने गया छोटे ने छुपा के रोटी सब्जी मुझे दी , जब मैंने उसे देनी चाही तो उसने मना कर दिया भरे गले से बोला " आदते ख़राब नही करनी ,वो भट्टी ही अपनी रसोई है "उसने हलवाई की ओर इशारा किया .फ़िर मेरे सर पे हाथ रख के बोला
"बड़ा होके भी ऐसे ही बने रहना "
.वो हमारी आखिरी मुलाकात थी ,उसके बाद वो कहाँ है ,नही जानता ? जिंदा भी है या नही ?
बड़ा तो हो गया पर शायद मन उतना बड़ा नही रहा जरूरतों ओर ख्वाहिशों ने इसे मैला कर दिया है
स्कूल जाने के लिए हम शोर्टकट लेते जिसके लिए हमें एक कच्ची गली से होकर गुजरना पड़ता गली के मुहाने पे हलवाई की दूकान थी ओर सुबह -सुबह उसकी भट्टी पर चढी कड़ाई से पूरियों की खुशबू आती ,उसके पास से गुजरते वक़्त मैं अक्सर सोचता की बड़े होने पर ढेर सारी पूरिया खाया करूँगा (जैसे की बड़े होने से ही पैसे अपने आप आ जाते है )
उसी टूटी फूटी गली के दूसरे कोने मे एक कोयले का गोदाम था ,जिसके दरवाजे पे अक्सर आर्मी की वर्दी पहने एक लंबे खुले बालो वाला सरदार जिसकी बड़ी ओर घनी दाढ़ी थी ,अक्सर कोयले को तोड़ता मिलता .कुछ हाथ दूर उसकी बैसखिया पड़ी रहती ,उसके बारे मे तब हम बच्चो के बीच तरह -तरह की अफवाहे थी ओर शायद उनका असर भी हम पर था , उसके पास से गुजरते वक़्त छोटा अक्सर कस-के मेरा हाथ पकड़ लेता ओर मैं भी तेज कदमो से वो दूरी तय करता . हमे देखकर वो अक्सर मुस्करा देता .एक रोज स्कूल की छुट्टी हुई ,गली के उस मुहाने पे उसने हमे आवाज दी ,छोटे का हाथ मेरे हाथ पे कस गया ओर मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा फ़िर भी भय पर जिज्ञासा हावी हुई ओर मैं लगभग छोटे को घसीटता हुआ उसके पास गया उसने हाथ से फर्श पे इशारा किया वहां कुछ अंग्रेजी मे लिखा था
"तुम्हे अंग्रेजी भी आती है ? " मैंने उससे पूछा , मेरे लिए ये बहुत बड़ी बात थी .
फ़िर उसने मुझे बहुत कुछ लिख कर बताया . कुछ पलो मे मेरा सारा डर जाता रहा , फ़िर ये हमारी रोज की दिनचर्या मे शामिल हो गया , रोज मैं लौटते वक़्त उसके पास कुछ देर रुकता , रोज छोटा मुझे माँ को बताने की धमकी देता , रोज माँ पूछती की देर क्यों हुई ? न छोटे ने कभी बताया न मैंने उसकी धमकी मानी.
एक रोज उसने कुछ लिखा जो मेरी समझ नही आया पर आज लगता है शायद उसने कोई अंग्रेजी की कविता लिखी थी वो रोज कोई एक मन्त्र मेरे कानो मे फूंकता "अपनी शक्ल पे कभी गरूर मत करना क्यूंकि इसके ऐसा होने मे तेरा कोई हाथ नही है " ,बड़े होके भी छोटे का हाथ ऐसे ही पकड़ना ओर
न जाने कितने!
मैं नही जानता वो कौन था ? उसका परिवार कहाँ था? किस हादसे मे उसकी टाँगे गयी? मुझे याद है पापा का ट्रांसफर देहरादून हुआ तो मैं उससे मिलने गया छोटे ने छुपा के रोटी सब्जी मुझे दी , जब मैंने उसे देनी चाही तो उसने मना कर दिया भरे गले से बोला " आदते ख़राब नही करनी ,वो भट्टी ही अपनी रसोई है "उसने हलवाई की ओर इशारा किया .फ़िर मेरे सर पे हाथ रख के बोला
"बड़ा होके भी ऐसे ही बने रहना "
.वो हमारी आखिरी मुलाकात थी ,उसके बाद वो कहाँ है ,नही जानता ? जिंदा भी है या नही ?
बड़ा तो हो गया पर शायद मन उतना बड़ा नही रहा जरूरतों ओर ख्वाहिशों ने इसे मैला कर दिया है
२१ सितम्बर सन्डे सुबह ७.४० मिनट ... पिछले दो दिन से सूरज जैसे छुट्टी पर है .,सारा आसमान बादलो के हवाले से है किसी को रोडवेज़ छोड़ने के बाद उसी गोल चक्कर से मुड़ना है उल्टे हाथ टर्न लेते ही कुछ कदम आगे कोने पे हलवाई की वही दूकान है ,अचार –आलू की वही खुशबू ..गाड़ी की खिड़की से ..एक नजर कोयले की गोदाम में झाँकने की कोशिश .. …..बारिश की बूंदे विंड-स्क्रीन पर गिरती है ….3 -5 सेकेंड .बमुश्किल गुजरते है की पिछली गाड़ी के हार्न . जैसे जोर से ऐतराज जताते है ……आगे बढ़ जाता हूँ , रेडियो FM पर रॉक ओन का गाना है. " आंखो में जिसके कोई .तो .ख्वाब है खुश है वही जो थोड़ा बेताब है "…….”ढेर सारी बूंदे फ़िर शीशे को ढक लेती है .. |