प्लेन की सीट पर बैठे बैठे मेरी ऊँघ को उस चार साल की बच्ची का सवाल तोड़ता है जो मेरे दांयी ओर की सीट पर बैठी है जिसके पास सवालों की बड़ी पोटली है ओर पिछले पन्द्रह मिनटों मे उसमे से कई सवाल निकले है ....उसका एक सवाल अपनी माँ से है...एरोप्लेन कहाँ पार्क् होगा ?माँ मजबूरी मे बाप को देखती है जो हेड फ़ोन लगाकर म्यूजिक सुन रहा है....बच्ची अपना सवाल दुहराती है...मेरे बराबर मे बैठे डॉ साहब अपने कान के दर्द को भगाने के लिए जोर जोर से अपना कान मल रहे है .....इंदोर से दिल्ली लौटते वक़्त इस प्लेन को कुछ वक़्त भोपाल हवाई अड्डे पर भी बिताना है ...........मै फ़िर अपनी आँखों पर चश्मा चढाकर एक मुस्कराहट जेट की उस खूबसूरत एयर होस्टेस को दे कर आँखे बंद करने की कोशिश करता हूँ ....कुछ मिनटों बाद मुझे वापस उसी दुनिया में लौटना है .....जहाँ मोबाइल स्विच ऑफ़ करना एक सामाजिक अपराध है ,उस दुनिया में ...... जहाँ ड्रग रिअक्शन के उस ३० साला मरीज को जिसे असल मे आई .सी यू में एडमिशन की दरकार है ...पर पैसे एक बहुत बड़ा सवाल बनकर उसके बूढे माँ बाप की खामोशी मे सुनाई देते है .....उस दुनिया में .....जहाँ तीमारदार आपसे इसलिए निगाह बचाते है की कही आपकी" विजिट" का बिल उन्हें अपनी जेब से न देना पड़ जाये .....उस दुनिया में....जहाँ ढाई साल के बच्चे की गरीब मां उस वक़्त भयभीत भरी निगाह से देखती है .. जब वो अपने जले पाँव पर ड्रेसिंग करवाते वक़्त आपकी महँगी टाई पर सू सू करता है......उस दुनिया में ....जहाँ बोटोक्स के इंजेक्शन में उम्र से लड़ने की कवायद है ...जहाँ लेजर के साथ सपनो की मार्केटिंग है .. उस दुनिया मे ......जहाँ शामिल होने से पहले आप ये भरम रखते है कि ये दुनिया इस देश की ईमानदारी का अस्सी प्रतिशत बोझा ढो रही है ......उस दुनिया में जहाँ जहाँ चीजो को तटस्थता से देखने की आपकी कुशलता आपकी योग्यता का पैमाना है .....मुझे अपने दोस्त रघु का फलसफा याद आता है जो उसने अपनी अलमारी पे स्केच पेन से कुछ शेरो के बीच लिखा हुआ था .....मुझे उस दुनिया में आगे जीना है ... जहाँ मुफलिसी के जीवाणु हर साल जादू से अपनी शक्ल बदलते है.....
.प्लेन लैंड हो रहा है........फ़िर से वही जद्दोजेहद !
खींच देता है दलीलो की लकीर
हम दोनो के दरमियां
उलझता है मेरी ख्वाहिशो से,
टोकता है मेरी जुस्तजुओ को..
जुदा है मेरे रास्तो से
जिद्दी भी है ...मगरूर भी है थोडा
यादो के टीले पर अक्सर तन्हा खड़ा मिलता है
मुझसे मुख्तलिख ....एक शख्स
मेरे ज़ेहन मे आवारा सा फिरता है !
आज की त्रिवेणी - सफ्हे डर सफ्हे कुछ देर रूकती है कुछ लफ्ज़ टटोलती है ,कुछ हर्फ़ पलटती है ...... हर शब् एक नज़्म अपनी शनाख्त करती है सफ्हे =कागज ,हर्फ़ =शब्द ,शब् =शाम शनाख्त= पहचान |